पुकारा था भक्त प्रह्लाद ने
या कि अंत ने महादानव को
हरि ना टाल सके आह्वाहन को
भवभयभंजन स्वयं पधारे तारण को
अहो भाग्य हिरण्यक राकस का!
स्तम्भ को फोड़े नरसिंह आए
सुर नाग मनुज सब जय-जय गाए
नाद करे उत्पात करे मेघ दहाड़े मारण को
भवभयभंजन स्वयं पधारे तारण को
अहो भाग्य हिरण्यक राकस का!
विकराल काल का भेष धरे
शतकोटि सूर्य का तेज भरे
भुजा में धरके गोद में रखके
नख से चीरे छाती तब संहारण को
भवभयभंजन स्वयं पधारे तारण को
अहो भाग्य हिरण्यक राकस का!-
Jaya Mishra
(जया मिश्रा 'अनजानी’)
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आत्मबोध की राह में!
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Joined 1 August 2017
20 AUG AT 3:52
15 AUG AT 14:26
पर्वतों ने माँगी नदियाँ
नदियों ने माँगा सागर
सागर ने माँगे मोती
मोती ने माँगे धागे
धागों ने माँगा देह
देह ने माँगा प्रेम
प्रेम ने माँगा त्याग
त्याग ने माँगी पीड़ा
पीड़ा ने माँगा बैराग
बैराग ने माँगी तपस्या
तपस्या ने माँगा पर्वत!-
31 JUL AT 17:41
धरती का सूर्यप्रेम
परिभाषित करता है
भोर का कलरव!
धरती का सूर्यप्रेम
परिभाषित करता है
साँझ का मौन!-
23 JUL AT 1:44
पूरब,पश्चिम
और दक्षिण
ये तीनों दिशाएँ हैं
लेकिन उत्तर
गंतव्य है।
केवल
नाम से उत्तर नहीं ,
यह मनुष्य के
हर प्रश्न का उत्तर है…!-
10 JUL AT 19:48
मनुष्य
के साथ
सबसे बड़ी
विडम्बना
यह है कि
वह ‘मृत्यु’ के
भय में
‘जीवन’
व्यतीत करता है!-
10 JUL AT 18:56
यदि कोई भी
धर्मग्रन्थ,
वेद-उपनिषद
तुम्हारे
और केवल
तुम्हारे बारे में
बात करता है
जिसे पृथ्वी के
शेष जीवन से
कोई औचित्य नहीं है
वह मौलिक रूप से
विक्षिप्त है!-