बेबस हूं, लाचार हूं
मैं वो अजन्मी संतान हूं
माँ की कोख़ में जब आई थी
खुशियां ढेरो लाई थी
जब पता चला घर वालो को
कोख में लड़की आई है
लिंग परीक्षण से क्योंकि
जांच उन्होंने करवाई है।
सहम गई थी माँ सुनकर
जब कानों में उसके
मुझें गिराने की बात आई थी।
वो कुछ न बोल सकी थी तब
बस दिल मे लिए बैठी थी दर्द
मैं भी जीना चाहती थी,
पहचान बनाना चाहती थी,
माँ बाप के नाम को मैं भी
रोशन करना चाहती थी
पर बेबस, लाचार थी मैं
अपने हक को न लड़ सकती थी
माँ भी मेरी डरी बैठी थी
वो भी कुछ न कर सकती थी
हाँ चाहती तो बचा सकती थी मुझकों
पर अपने भविष्य के कारण
उसने मेरी बली चढ़ाई थी
चाहती थी वो अपना जीवन
और दाव पर मेरी ज़िंदगी लगाई थी।
(Read in caption)
-Naina Arora
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क्या है ज़िन्दगी....
ये ज़िन्दगी हमारी है!
ये कितनी प्यारी है?
ये कितनी हमारी है?
संस्कारों की बेड़ियां,
आदर्शों की नीतियां,
परम्पराओं की गुलामियां,
ज़िन्दगी की लाचारी है,
ये कितनी प्यारी है ?
ये कितनी हमारी है?
दुसरों का ही सोचना,
इच्छाओं का गला घोंटना,
जीवन को ही कोसना,
सांसें तो हमारी है,
हुकूमत ही जारी है,
ये कितनी प्यारी है?
ये कितनी हमारी है?
मजबूरियों की महामारी है,
ये ज़िन्दगी हमारी है!
ये कितनी प्यारी है?
ये कितनी हमारी है?-
Women's Day special..
मैं थोड़ा
थोड़ा
मरती हूँ।।
(रचना अनुशीर्षक में)-
रीसती दीवारें
बुझे हुए चूल्हे
कराहते चप्पल
बूँद बूँद में टपकते छप्पर
उस पर जुबान का कुछ बोल न पाना
और बरसों पुरानी प्योंदे लगी
कमीज का राज उगलते जाना
कलाई में दो चार चूड़ियाँ
पुरानी सी मटमैली धोती
चेहरे की फीकी सी मुस्कान
मुस्कान की झुर्रियाँ
बालों में बेवक्त की सफेदी
उस पर स्तन से दूध का ना उतरना
और अपलक उम्मीद से
दो नन्हीं आँखों का तकते जाना
ईश्वर... ये अन्याय कभी मुझे चैन से सोने नहीं देगा ॥-
"साजिशें कुछ यूं चली,
मेरे उजाले ही रूठ गए मुझसे!"
अब मेरा अंधेरा भी नहीं ढूंढ पाता मुझे,
लगता है!
मेरे जुगनुओं ने,
मेरे वक्त से बगावत मांग ली है।।।।।।
"और इक दौर बीत गया है,
सभी को खुश करते हुए!"
पर ना जाने क्यूं?सभी खफ़ा हैं मुझपर????
लगता है!
मेरे हमराजों ने
मेरे वक्त से अदावत मांग ली है।।।।।।
"और मेरा दम घुटता है,
हर पल अपनों के बनावटीपन से!"
अब मेरी हर महफ़िल भरी, पर सूनी है,
लगता है!
मेरे जफ़ाओं ने
मेरे वक्त से कोई शिकायत मांग ली है।।।।।-
कुहुकते श्वान के बच्चे
और इंसान के अनाथ शावक
ठण्ड को ठिठुराकर
जीवन को जीवित रखते हैं
वो निर्धन, निरीह, निर्भीक होते हैं
वो लाचारी की गोद में सोते हैं
या यूं कह लो नींद को सोना सिखाते हैं
हर रात को सपने देखने का हौसला देते हैं
और सुबह को चमकने की प्रेरणा देते हैं
वो भूख का भरण-पोषण करते हैं
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मेरी बेबसी मेरी आंखों में यह पुकार कर रोई,
कत्ल पर कत्ल हुए खामोशी के साथ।-
ख़ुश रहते हम अपनी दुनिया में,
कभी दीन- दुखियों से भी बोल दिया करो,
मधुर वाणी से कड़वाहट मिटाकर,
अपनेपन की मिठास घोल दिया करो,
होगी बहुत धन दौलत तुम्हारे ख़ज़ाने में,
पर कुछ लोग तरसते हैं रोटी को,
अपने अंहम को दूर रख कर कभी,
गरीबों के लिए दया के कपाट खोल दिया करो!-
बाढ़ हूँ, सूखाड़ हूँ, युवा बेरोजगार हूँ।
श्रमिक पलायन की दयनीय मार हूँ।
कल-कारखानों का कबाड़ हूँ, उद्योगों का उजाड़ हूँ।
चमकी बुखार से मरते बच्चों की चीत्कार हूँ।
हाँ! मैं वही सुशासन की भ्रम में कैद बिहार हूँ।-
ठिठुरती सर्द रातों में,
फुटपाथ पर,
सोया वो,
अपनी बेबसी का नया साल
मना रहा था.......
पूर्वा शुक्ला✍️
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