Anupam Pathak   (अनुपम पाठक)
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Joined 21 September 2019


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20 NOV 2022 AT 17:33

कितनी मुहब्बत है तुमसे, तुम्हें बता भी नहीं सकता
समंदर हूं, आसूं बन पलकों पर आ भी नहीं सकता
और कुछ आने को बेताब, हरपल होंठो पर कांपता
अधूरा हूं तुम बिन ये तुमको जता भी नहीं सकता।।

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18 OCT 2022 AT 0:48

कुछ उम्मीदों का दामन थामे, सपनों की राह मैं जाता हूं
इक मोड़ है, जिस पर जाकर मैं,लौट शुरू पर आता हूं,
बस खुद को ही दोहराता हूं।

हारा हूं मैं? या की मैं!,गर्दिश में था जो टूट गया
वो बचा हुआ इक तारा हूं,जुगनू सा मैं शाम ढूंढता
बस खुद को ही दोहराता हूं।

कल था जो, हो कल ना वो,ये सोच के मैं घबराता हूं,
है अंत मेरा यदि ऐसा तो,क्यों इसे नहीं मैं भाता हूं
बस खुद को ही दोहराता हूं।

हर हार की होती सीख नई,मन अंदर की वो चीख नई
वो मोड़ ना पार मैं पाता हूं,थककर फिर थकने को मैं
बस खुद को ही दोहराता हूं।

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29 SEP 2022 AT 3:05

किश्तों में दर्द मिलता,इस रिश्ते में अब नफा नुकसान होता है।
जहन जहर से भर जाता ,इश्क़ निभाना जैसे छूना आसमान होता है।

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26 SEP 2022 AT 0:35

हर अपने को छोड़ के वो
ना जाने कैसे सबको अपनाती है
और जो है वंश बढ़ाती आगे
कभी उस वंश की हो ना पाती है।

और कहने को थे दो घर उसके
पर घर कोई उसका हुआ नहीं
और एक पराया बचपन से था
एक जो उसका हुआ नहीं।

और जख्म जो मिलते छुपा वो लेती
पर घायल बातों से हो जाती है
और औरत खुद में एक कहानी
वह किरदार की बस रह जाती है ।

और एक शरीर किरदार अनेकों
फिर लाचार वो क्यूं हो जाती है
और जब मर्यादा मर्यादित ना हो
तब वो चंडी दुर्गा हो जाती है।

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14 SEP 2022 AT 23:22

दर्पण के उस ओर, मैं हूं और इक घर है मेरा,
जो इस ओर है,प्रतिबिंब है,और बसर है मेरा।।।

नींद, ख्वाब सुहाने, सब कैद हैं! उस ओर ,
इस ओर तो जगता , नींद में बिस्तर है मेरा ।।।

कश्तियां, लहरें, मेरे किनारे हैं! उस ओर
यूं तो यहां गुम इक नांव में समंदर है मेरा।।।

भटक रहा हूं मैं मुझमें, जाऊं मैं किस ओर
हर जगह ढूंढता फिर रहा मुझे घर है मेरा।।।

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6 JUN 2022 AT 19:05

मैं भीड़ हूं, मेरी थकी सी सांसें ,झुके से कंधे, हैं पथराई आंखें
मैं सब्र भी करता और तरसता,रिश्तों! की डोर से बंधा हुआ
इक काठ का इंसान हूं ,मैं आदमी इक आम हूं।।

है जिम्मेदारियों का इक महल, कहीं है सघन, कहीं है विरल
मैं हर वक्त लड़ता और मरता, किसी!गलियारे में पड़ा हुआ
इक गुम हुआ सामान हूं, मैं आदमी इक आम हूं ।।

बस के धक्के साहिब की डांट, परिवार पालता ना कोई घाट
मैं खुद ही चुनता और कोसता, चुनाव! बाजार में ठगा हुआ
इक मूक बना आवाम हूं, मैं आदमी इक आम हूं ।।

ताउम्र चुकाता कर्ज की किश्ते, ऊपर रखता हर रिश्तों के रिश्ते
मैं सब कुछ सहता और चुप रहता, अपनों! से धोखा खाया हुआ
इक सुतिया* इंसान हूं, मैं आदमी इक आम हूं ।।

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5 JUN 2022 AT 14:41

मैं तेरे लिए ही, तो लड़ा जा रहा,
यूं कर ना मुझे तू, बेहाल जिंदगी।
और कब तक गिरूं मैं,
अब मेरी ही नजर में,
थोड़ा मुझको भी अब तू
संभाल जिंदगी! संभाल जिंदगी।

मरना तो तय है, इकदिन यहां
जी रहा हूं मैं जैसे, सवाल जिंदगी।
और जला हूं मैं कितना,
ये तुझे भी पता है,
थोड़ा राखों का कर तू
ख्याल जिंदगी!ख्याल जिंदगी।

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2 MAY 2022 AT 14:47

अतीत के पन्नों को पटलकर देखा
उनमें कोई इक सुबह तेरे नाम से है।
वो कलम कुछ और नहीं लिखती
शायद किसी नशें में उसी शाम से है।।

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29 APR 2022 AT 19:31

लोग वही, यहां बस बदलता किरदार है
जरूरत पर सगे हैं नहीं तो दरकिनार है
ये वो दौर है जिसमें नजदीकियां पर्दा है
दीवारें शांत चीखती सन्नाटों की दरार है

इक खालीपन हर तरफ हर रिश्तों में है
भरते लोग इसे मतलब की किश्तों में हैं
सबकी अपनी शर्तें सभी मौसमी यार है
दीवारें शांत चीखती सन्नाटों की दरार है

बदनसीबी है? बातें संभल कर करते हैं
आजकल जमाने में इसी का व्यापार है
वही छत वही आंगन वही बाग बहार है
दीवारें शांत चीखती सन्नाटों की दरार है

पानी हवा जिंदा मरा ये लूट का करार है
बिकते रिश्ते दामों पर ऐसा ये बाजार है
डायन दो घर छोड़े! ऊपर ये कारोबार है
दीवारें शांत चीखती सन्नाटों की दरार है

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21 APR 2022 AT 21:58

मैं खुद्दार खुदगर्ज जमाने में इस कदर
कदर ढूंढने खुद की रहा यूं दर - बदर,

तपन थी पैसा मैं गलन ओढ़ हर शहर
कहीं ठहरा पहर कहीं पहरा हर पहर।।

फिसलती मंजिल हर मंजिल पर नजर
नजर पठारी पलकें कोई रेतीला सजर,

मैं खुद्दार खुदगर्ज जमाने में इस कदर
कदर ढूंढने खुद की रहा यूं दर - बदर ।।

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