तू सात समंदर पार है, हद सरहद से भी तो उस पार है, _राज सोनी
अब तो तू आ भी जा दिलबर, मुद्दत से तेरा इंतजार है!
यहां भोर तुमसे पहले होती है, साँझ पहले आ जाती है,
आती नहीं तो बस एक तू, सपनों में ही जी बहलाती है!
तारे जब-जब भी टूटे है, तब-तब मन्नत तेरी मैने मांगी है,
पर इस तारे की राह तकते, गिन-गिन के दिन गुजारे है!
संदेश मेघदूत से भेजा है जो मेरा हाल-ए-दिल बताता है,
देस-दिसावर के लोग पराये, मेरा आँगन तुम्हे बुलाता है!
अलसुबह काग छत पर, चिड़िया आँगन में चहचहाती है
कुदरत ने दे दिए इशारे, बस तेरा आना ही अब बाकी है!
खत प्यार का तुमको लिखना है, फूल गुलाब का देना है,
मैं करना चाहूं ऐसे इजहार, क्या तुमको इकरार करना है!
तुमको नई पहचान देनी है, एक प्यार का नाम सोचा है,
चुटकी भर सिंदूर मांग से अब एक दूजे का होना ही है!
अब के बरस बरसना है, अपना पहला पहला सावन है,
बाकी तो रब ही जाने पर तेरा "राज" से मिलने आना है!-
जो सम्पति परिश्रम से नहीं अर्जित की जाती, और जिसके संरक्षण के लिए मनुष्य का रक्त पसीने में नहीं बदलता, वह केवल कुत्सिक रुचि को प्रश्रय देती है।
सात्विक सौन्दर्य वहाँ है, जहाँ चोटी का पसीना एड़ी तक आता है और नित्य समस्त विकारों को धोता रहता है। पसीना बड़ा पावक तत्व है मित्र, जहाँ इसकी धारा रुद्ध हो जाती है वहाँ कलुष और विकार जमकर खड़े हो जाते हैं।-
मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्तयिता है। मनुष्य नियम से विचलित हो जाता है, पर देवता की कुटिल भृकुटी नियम की निरंतर रखवाली करती है।
मनुष्य इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह गलती कर सकता है, देवता इसलिए बड़ा है कि वह नियम का नियंता है।-
सूरज से मेरे प्रेम को, समझा तुमने सूत
कैसे बनाकर भेजूँ अब, मैं मेघों को दूत
मुद्रिका मेरे प्रेम की, निगल गयी कोई मीन
लगने लगा ये जीवन क्यों, अब मुझे रंगहीन
छूती जब कागज को, मेरी कलम की धार
मेरे हृदय की पीड़ा फिर, करने लगे चीत्कार
देह के यज्ञकुण्ड से, जन्मी थी ये प्रीत
मन की ज्वाला देखकर, अग्नि भी भयभीत
शिव और गौरी के बिना, सम्भव नहीं कुमार
भस्म करे इस काम को, है रति को अधिकार
प्रेम शाखा पर बैठ कर, करता कुठाराघात
मूढ़ता का परिणाम क्या, कालिदास को ज्ञात
-
प्रिये ! सौगन्ध ऋतू की
रोया बादल या तुम रोये थे
वर्षा कणों में तुम यूँ खोये थे
निर्जन वाटिका सा मन ये मेरा
पुष्प सुवासित स्मृति तुम्हारी
असाढ़ के मेघ ये जैसे उष्मित
अब घुमड़े जैसे अब तक खोये थे
पूर्वी मलय का सुवासन प्रिये
जैसे तुम कंचन काया छू गए थे
घनघोर घटा ,काली नागिन सी व्यथा
विरह में होकर चूर चूर निद्रा में
थक कर प्रियवर कैसे तुम सोये थे
स्निग्धता का धवल पाठ विस्मृत हुआ
सच कहना श्याम घटा नयनन में क्या ढोये थे
कन्दरा कन्दरा मेरे योगी कहो न
क्या तुम भी पाषाण शिला सा भये थे
प्रिये ! सौगंध ऋतू की
रोया बादल या तुम रोये थे ।।-
मेघदूत लेकर आए,
स्मृतियों की बदली ,
आज एकांत क्षणों में
लिए मोरपंख बैठ विचारुं,
कितने रंग भरे थे तुमने ,
मेरे जीवन के इंद्रधनुष में
मन मयूर थिरका करता था
भीगे भीगे मौसम में....
आज विच्छोह में
मूक हो चली पग पैंजनिया
करती थी जो कभी नर्तन
उमंग भरे मन से...
बेसुधपन में
उद्वेलित मन को
दस्तक देती हैं
तुम्हारी प्रीत की अनुभूतियां
बंद न कर पाई कभी
स्मृतियों के द्वार.....!
उमड़ रहें हैं भाव अनवरत,
बिखर रहे हैं नेह के मोती,
इन कोरे पृष्ठों पर लिखने बैठी
मूक हृदय की अव्यक्त भावनाएं
चुनती रही शब्दों की अट्टालिकाएं,
कहां सरल था तुमको लिखना,
शब्दों में कहां बंधती है संवेदनाएं...!!-
हम कालिदास की सजल कल्पना,"मेघदूत "के हम अनुचर ,
मुग्ध मयूर के नृत्य मनोहर,कृषक बालिका के जलधर।।
पाताल गर्भ में छिपे हुए हम,फैला मृदुल जल भर पंख,
हम असंख्यअस्फुट बीज के श्वास बने,जग के सहचर....!!!
-