"वियोग उत्पत्ति
मनःस्थिति शत्रु आविर्भाव
लक्ष्य तिरोभाव..!"-
आज फिर कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ कोशिशों के बाद
बीमार तन-मन में कोई भाव पनपता ही नहीं।
जैसे ही कुछ मन की बेचैनियों से राहत मिलेगी
शब्दों, भावनाओं के साथ.मिलेगे यहीं कहीं।
तब तक के क्षमा करें, मित्रों !पढ़ भी नहीं पा रहा
फिर से आपकी रचनाओं को पढ़ेंगे पर अभी नहीं।
🙏🙏🙏-
छिड़ा द्वंद
दो पक्षों में
मेरे भीतर ही कहीं।
पर सही गलत का
फैसला सुनाए कौन?-
मैं
असमंजस मनःस्थिति का
क्यों नहीं समझ पाती
स्वयं को गाहे-बगाहे
अवांछित स्तिथि में पाती
किन्तु उस से बचूँ कैसे,
राह कोई मिल न पाती
कल थे भाव और मन के,
आज और भाव हैं..
'क्यों ये बदले',ये पहेली,
मैं नहीं हूँ बूझ पाती!!-
गरीबी
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गरीबी का निशाचर गरीब को जीने नहीं देता!
बदनाम कर गरीबी को अमीर गरीब कहलाता!
हाय रे! ये कैसी विडंबना सफेद कुर्ता भी गरीब होता!
टोपी को कटोरा बनाकर गरीब से ही भीख माँगता!
खा कर गरीब के हक़ की रोटी उन्हेंं ही आँख दिखाता!
हाय रे! ये कैसी विडंबना सफेद कुर्ता भी गरीब होता!
गरीबी का निशाचर गरीब को जीने नहीं देता!
मेहनत मजदूरी कर गरीब अपने घर का पेट भरता!
न बेचता ईमान अपना, स्वाभिमान से सदा गरीब जीता!
पर क्या कहे! भूखे पेट गरीब कितने दिनों तक जीता!
देश का हर गरीब अब गरीबी से आज़ादी चाहता!
न मुफ़्त बिजली-पानी, न दो रूपए में अनाज चाहता!
ऐसा हो व्यवस्था देश का जिससे सब को रोज़गार मिलता।
गरीबी-अमीरी का भेद मिटाकर देश खुशहाली से झूमता।-
बदल ले खुद की मनःस्थिति को,
परिस्थिति तू क्या खाक बदल पाएगा।
निकल ले खुद ही खुद की खोज में,
अवस्थिति उच्च को पा जाएगा।
गौरव भी गुणगान करेंगे,
वक्त भी इठलाएगा।
बदल ले खुद की मनःस्थिति को..।।
उस निराकार का अंश,
उस ब्रह्म का अनंत है तू।
परिचय दे अदम्य साहस् की,
ना रहे डर किसी दुःसाहस् की।
दृढ़ निश्चय से भर ले खुद को,
तू ब्रम्हानंद को पा जाएगा।
बदल ले खुद की मनःस्थिति को..।।
तपा ले खुद को बुद्धत्व की पुंज में,
तू जग को पुंजीत कर जाएगा।
बदल ले खुद की मनःस्थिति को,
परिस्थिति तू क्या खाक बदल पाएगा।।-
कुछ खट्टी कुछ मीठी लम्हों संग यूँही जलता गया।
अतीत के गिरफ्त में होकर मोम सा जलता गया।
ज़िंदगी की आस लिए तब ख़ुद से समझौता किया,
रिश्तों के मायाजाल में फँसकर तब यूँही जलता गया।
कुछ नसीब और कुछ कर्म की गति पहचाने कहाँ,
बस जीवन की बगिया में सूरज सा यूँही जलता गया।
चेहरे दिखे दिल करीब पर मुसीबत में अंगार निकले,
अतीत के गिरफ्त में होकर यूँही मोम सा जलता गया।
कुछ अतित के पल बहते है धमनियों में आज भी 'स्पर्श'
जिसके गिरफ्त में होकर हर पल घूँट घूँट कर जलता गया।-
संबंध
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"जीवन में यदि संबंध स्थापित हो तो,
आँसू और हाथ जैसा होना चाहिए।
जब आँसू गिरते हैं तो सबसे पहले,
उसे संभालने हाथ ही उठता है!
और जब हाथ में चोट लगता हैं,
तो उसके दर्द को मिटाने
सबसे पहले आँसू निकलता है!"
गुजारिश यही है स्पर्श का
समय की कमी और
आधुनिकता की होड़ में,
यदि संबंध हो तो ऐसा!-
समझ बूझ कर निर्णय लें।
समझ बूझ कर निर्णय लें, हवाओं की गति जांच लें।
परखें समय के पासों को, संसाधन भी संग साध लें।।
वक्त है तलवार दोधारी,रहम इसे नकोई मोह,माया।
वक्त की करघी के चक्र भी पैरों की गति से बांध लें।।
तीर हाथ से छूटा जो एक बार,वापिस लौटे न फिर।
विवेक-संयम की कसौटी पर कस, इसे अवाध लें।।
कदम कभी कोई सीधा कभी ग़लत भी पड़ जाता है।
जीवन फिर देगा अवसर,न इसको मन पर बयाध लें।।
हार जीत है मनःस्थिति,सत्य वही, जो तुम मान लो।
विजय के ओ अभिलाषी,सबक हार भी, एकाध लें।।-
जब तुम याद आते हो तो दिल गुलाब की तरह महक जाता है।
ख़ुशबू बिखेर कर इस तन में और ज़हन में आग लगा जाता है।
पता है तुम्हें, चुभते हैं काँटें तेरे बिरह के फिर क्यों सिर्फ़ यादों में ही आते हो?
महसूस करना मेरे दिल की पीड़ा जो दर्द मेरे दिल में खिलता है।
घड़ी दो घड़ी नहीं, पल दो पल नहीं अब तो 'स्पर्श' बीत गए बरस दस।
कभी फुर्सत मिले तो गुज़रना मेरी गली से एक झलक देख तुझे फिर से महक उठूँगी!
फिर से महक उठूँगी....!-