वैभव न विरुद्ध हुआ, आगमन तूने अवरुद्ध किया
पग पग पे हैं बिखरे मोती, जीवन के इन राहों में
तू देख सके तो देख!!
अथक असीमित कर्म बना, ध्येय को तू धर्म बना
प्रारब्ध छिपा तेरे जीवन का, तेरे ही प्रयासों में
तू देख सके तो देख!!
धाराएं विपरीत ही बहती, तरंगित लहरें है ये कहती
कि मिलती कहां मंजिलें, यूॅं बातों ही बातों में
तू देख सके तो देख!!
दीप निशा हुई प्रज्वलित, होती काङ्क्षायें उद्वेलित
सपनें कहां होते सार्थक, सम्यक निद्रा की रातों में
तू देख सके तो देख!!
दृढ़ निश्चय का मार्ग बना, प्रतिज्ञा का प्रमाण बना
मिलेंगे मोती बिखरे, जीवन के इन राहों में
तू देख सके तो देख!!-
कुछ और नहीं बस मैं ही मैं हूॅं
संगीत साधना में रहता लीन
होती ... read more
शेष गए अधिशेष है बाकी।
कल कल क्षण क्षण बीत रहा,
जीवन का ये पल है व्यापी।
हुआ उद्भव, उद्घोष वहीं, कि
जन्म हूॅं, अवतार नहीं।।
हुआ पुष्पण् एक नव जीवन का।
जो छाया मौसम था रंगो का।
उल्लास भी था, थे उमंग वहीं, कि
जन्म हूॅं, अवतार नहीं।।
कई आए कई बीत गए, हैं कई
अभी आने को बाकी।
निर्मल सा बहता ही चलूं,
बन जीवन के सुख दुख का साथी।
आगाज है ये, है अंत भी कहीं, कि
जन्म हूॅं, अवतार नहीं।।-
लहराई मन की तरंगे, खिले कल्पनाओं के फूल।
प्रबल हुई मन की चेतना, कुछ ओझल कुछ दृश्य
सा, उड़ते मस्तिष्क में विचारों के धूल।।
कानों ने सुनी वो अदृश्य पुकार, मन बावरा, था
आतुर करने को प्रतिकार, थी विस्मित वो तृणमयी
सन्ध्या कि समय ने खिलाए कैसे गुल।
उड़ते मस्तिष्क में विचारों के धूल।।
गैरों ने कहा अपनों ने सुना, सुन ली गई
अनकही बातें भी, ठहर सी गई विरही रातें भी।
उलझ गई है डोर जैसे उलझे मानस के फूल।
उड़ते मस्तिष्क में विचारों के धूल।।-
हिंदी भारत के मन का संगीत है। हिंदी केवल भाषा ही नहीं है, हिंदी समस्त देश के विविधता को जोड़ने का आधार भी है। सभी क्षेत्रीय बोलियों को जोड़ने का संस्कार भी हिंदी में ही है। हिंदी की किसी भी भाषा से प्रतियोगिता नहीं है। हिंदी अपने दम पर बढ़ रही है।
अंग्रेजी श्रेष्ठता की हीन ग्रंथि ने हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को क्षति पहुंचाया है। अंग्रेजी भारतीय संस्कृति की भाषा नहीं है, अंग्रेजी वैज्ञानिकों की भाषा नहीं है। अंग्रेजी केवल राजनीतिक संरक्षण की भाषा है। जबरदस्ती इसे राजकाज की भाषा बनाया गया है।
भारत के जन जन की भाषा, स्वाभाविक भाषा तो हमारी मातृभाषा है।
जननी, जन्मभूमि और मातृभाषा की श्रेष्ठता निर्विवाद है!!
हिंदी दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।-
चाॅंद नगर में रहने वाले
सितारों से आशियां सजाते हैं
दूर व्योमन् से मन को लुभाते
इन दूरियों पर इतराते हैं
देते हैं चुनौती उन्हें छू लेने की
उस पार भी दुनिया है बसती
नित्य हमे बताते हैं
चाॅंद नगर में रहने वाले...
जुगनू सा नित्य जगमग करते
सौंदर्य निशा की बढ़ाते हैं
कभी दृश्य कभी ओझल होते
मानव मन को सुहाते हैं
चाॅंद नगर में रहने वाले
सितारों से आशियां सजाते हैं-
वो जीवन होगा नया, वो मंजर भी होगा नया
आंखो में सपने सजाए, निकल पड़ा हूॅं कल की
खोज में, बेकरार हूॅं उस कल के लिए
अंधेरों की दरारों से दिख रही मंजिलें, पुकार रही
तू थकना नहीं तू रुकना नहीं, रुकना वहीं, जहां
होगी वो सुबह खड़ी, सत्कार के लिए
टूट गए कई सपने तो क्या, छूट गए अपने तो क्या
पूरे होंगे सपने, मिलेंगे अपने भी, आएगा वो पल
बेकरार हूॅं उस पल के लिए
है सफर ये तन्हा तो क्या, राहें भी तो थोड़ी हैं जु़दा
सजेंगी महफिलें खुद की शान में, उठती मन में
हलचलें, बेकरार हूॅं उस कल के लिए-
वो शुभ घड़ी आ ही गई, था जिसका सदियों से इंतज़ार
मन हर्षित, हो रहा उल्लासित, है मन रहा जो ये त्योहार
जगमग हुई अयोध्या नगरी, बन रही एक नई पहचान
श्री राम लला हो रहे विराजमान
सज रही सदियों की लालसा, प्रगाढ़ हो रही मन की आस्था
युगों युगों से आदर्श हमारे, श्री राम हैं कण कण को प्यारे
छीन गया था इतिहास हमारा, आज हो रहा पावन प्रतिष्ठान
श्री राम लला हो रहे विराजमान
इतिहास में लिखा जाएगा, सुनहरे अक्षरों से, दिन आज का
है आगमन इस पावन बेला में, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का
भारत जिनसे अर्थ है पाता, उन्हें समर्पित कोटि कोटि प्रणाम
श्री राम लला हो रहे विराजमान-
ऐ चाॅंद तेरी चाहत ने मुझे जग में है रुसवा किया
मैं बदनाम हूं इन गलियों में, क्यूं तुझे प्यार किया
लुभाती मन को तेरी ये सूरत, सीरत के क्या कहने
भा गए जो मन को तुम, मैंने कौन सा गुनाह किया
पूर्ण स्वरूप में उदित हुए, फिर पूर्णिमा की रात हुई
निहारूं अपलक तुम्हें, चाॅंदनी ने जो आगाह किया
बादल विहीन आसमां में स्थिरता से निखर रहे तुम
बना बिम्ब दृश्य पटल पे, एकदुजे का दीदार किया
तुम खामोश हो बैठे कहीं दूर सितारों के चमन में
मैं बदनाम हूं इन गलियों में, क्यूं तुझे प्यार किया-
बन जाओ तुम गीत मेरे, मैं संगीत से सजाऊं
बन गीतों की रागिनी तुम, चले साथ जो मेरे
लयबद्ध हुआ जीवन, बस तुम्हें ही गुनगुनाऊं
बन जाओ तुम गीत मेरे, मैं संगीत से सजाऊं
मन चंचल, करता विचरण शब्दों के गगन में
है बस में कहां ये, रहता सरगम की भजन में
कारीगरी सरगम से बना संगीत तुम्हें सुनाऊं
बन जाओ तुम गीत मेरे, मैं संगीत से सजाऊं
करूं साधना मैं रागों की, तुम रागिनी बन आना
पर्याप्त नहीं है पूरक होना, समपूरक बन जाना
कभी कोमल कभी तीव्र स्वरों से यूं तुम्हें रिझाऊं
बन जाओ तुम गीत मेरे, मैं संगीत से सजाऊं
स्पंदित होती श्रवण संवेदना, मधुर तुम्हारे गीतों से
तरंगित होती मन की तृष्णा, उर्वर अंकुर प्रीतों से
बन जाना तुम साज स्वरों की, मैं साजिंदा कहलाऊं
बन जाओ तुम गीत मेरे, मैं संगीत से सजाऊं-
छन के आ रही रौशनी दूर गगन से
मद्धम छाया, शीतलता की साया लिए
क्या है उस पार, दिखे नहीं नयन से
दिखा चाॅंद मौन सा, दूर व्योमन् से
शिखर से धरा तक बिखरी चंद्रभा
प्रखर हो रही ये निश्छल शुक्लभा
ढली सांझ हुआ ओझल सूरज लोचन से
दिखा चाॅंद मौन सा, दूर व्योमन् से
करे सारंग रजनी की रखवाली
रजतमय हुई ये निशा निराली
हुई हर्षित ये तृणमयी संध्या
बिखरी खुशबू उपवन से
दिखा चाॅंद मौन सा, दूर व्योमन् से-