काश ठहर पाते तुम, इन आँखों में।
और न छलकते कभी तुम, इन आँखों से!
दोष है किसका, ज़रा पूछना इन आँखों से!
तुझे ही जिसने बसाया अपने इन आँखों में।
काश ठहर पाते तुम, इन आँखों में।
तो न रुद्राक्ष बनता और न तो सती होती!
हृदय की प्रीत साची होती तो मेहराब न होती!
मन तो पपीहा मेरा, बसाया तुझे इन आँखों में।
ग्यारह माह का साया छलकता इन आँखों में।
बीते लाखों पल जहाँ, गैरों की दरकार न थी!
फ़र्क है इतना सिर्फ़ साथ होकर भी तुम न थी!
दर्द कितना है, ज़रा देखना इन आँखों में।
जीने की कस्मे और स्पर्श के इन आँखों में।
ठहराव वहीं है और गहराव भी वही है !
बस रुक गया है जो तो वो सवेरा वही है !
काश ठहर पाते तुम, इन आँखों में।
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