बोली तो बोली
लिखी तो भाषा
समझ न आये
ये परिभाषा-
बुन्देलन की सुनो कहानी हम तो तुमे सुना रए
छत्रसाल से राजा हम तो चरनन शीश नवा रए
अपनन को साथ न पाओ तो भी अपनो राज बसाओ
करी लड़ाई भीषण इत्ती और भगवा को मान बढ़ाओ
छत्रपति ने करी बड़ाई कई कुलदेवी ने भेंट कराई
-
हो सकता है उनकी भाषा
अधिक सरल, सौम्य और मीठी हो...
पर हमेशा उन्हें
मेरा स्वर कर्कश लगता है
मैं जिस भाषा में बोलता, खाता-पीता, चलता हूँ
उसमें मेरे देश-घर-अँचल की छाप है
जिसका पहला वर्ण
माॅं के कंठ से छनकर आया होगा...
मेरी भाषा अवधी है
उसमें शहर की ठेठ ठसक है
थोड़ी अलग है
जायसी, तुलसी, तिरलोचन से...
बिरहा, कजरी, नकटा
आल्हा और चैती में डोलती दिखती है हिंदी...
माॅं का ख्याल था
बियाह-गवन, सोहर में जन्मी हमारी बोली
पुरखे पुरनियो की बोली है...
तो भला कर्कश कैसे
भाषा के इस आघात को स्वीकार कर भी लूॅं
तो भला
हिंदी से प्रेम कर पाऊँगा....? कविता सिंह ✍️
-
वो घूंघट में हंसी ,तो भी गाली खाई,
वो बाहर गया ,और बोली भी लगाई..-
कर ली हमने भी मोहब्बत, संग एक उम्मीद!
शायद फितरत ए वफ़ा के, होंगे तुम भी मुरीद!-
गुस्से में कभी गलत मत
बोलो , मूड तो ठीक हो
ही जाता है , पर बोली
हुई बातें वापस नहीं आती ..-
नीलाम किया था दिल अपना ये सोचकर हमने
के बोली लगाने वालों में शायद तुम भी शरीक़ थे-