ईमानदारी की राह पर चलते चलते
पहुँच गया हूँ बेईमान शहर में
हर कदम पर ठोकर हूँ खाता
गिर जाता हूँ खुद की नज़र में-
बे-अकल, बद-जबान, बेईमान हूँ
हाँ मैं भी आज के दौर का इंसान हूँ।।-
लगा रखे हैं बेईमान चेहरे पर, हज़ारों और चेहरे,
मगर शर्म आँखों की, ईमान के आईने पर ही रौशन है !-
छोड़ते-छोड़ते ही सारा उम्र बीत जाएगा,
ज़िन्दगी के आखिरी मोड़ पर, अकेला ही रह जाएगा,
तरसेगा फिर कि कोई हाल पूछ ले,
कोई घास भी न डालेगा, चाहे कितना भी गिड़गिड़ायेगा।।
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खुद की, परिवार की व अन्य प्रियजनों की अनैतिक कामनाओं को पूरा करने के लिए आदमी दिन ब दिन बेईमान और भ्रष्ट होता जाता है। इस तरह घरों से निकला भ्रष्टाचार पूरी दुनिया में व्याप्त हो जाता है।
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छूकर मुझे ज़ाफ़रान कर दो
बस ये गुनाह मेरी जान कर दो
मौसम नहीं इश्क़ करने का फिर भी
बस आज मुझे बेईमान कर दो-
जब फुर्सत मिले तुम्हें तो आना कभी इधर
लोगों ने जैसे तुम्हें बताया है मैं वैसा नहीं हूँ-
मर रहा है इंसान लिखते लिखते
हो गया बेईमान लिखते लिखते
मिल जाता है साहित्य गली गली
सम्मान हुआ सामान लिखते लिखते-
मैं आज भी बेईमान हूँ उनकी निगाह में
जिनकी निगाह सिर्फ बेईमान को देखती है
सच बताऊं दुआ करते हैं वो लोग जो
मेरे अन्दर छुपे ईमान को देखती हैं-