|प्रेम पत्र|
चार हज़ार साल बाद खुदाई में..
फिर मिलेगी एक सभ्यता
और बिखरे पड़े अवशेषों में प्राप्त होगा...
प्रकृति के नाम एक प्रेम पत्र-
दिन- रात भू तपती है
आव्हान करती है
पिपासा अमृत की
प्राण प्रिये उबलती है
जग-जल , भू-थल
कर भाग पिघलती है
अनिल-अनल , वात-जल
सब उगलती है
धरा सुंदरी
जग-मग-जग-मग
प्रणय प्रभात करती है !
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आयुष," हमारे गुड़हल के पौधे पर तितली ने अण्डे दे दिये हैं शायद"क्या करूँ? इल्लियों ने कलियों में छेद कर दिये हैं।
माँ ,"रहने दो अपना चक्र पूरा करके उड़ जायेगी तितली बनकर"
"जीवन है इनका छोटा सा जीने दो"
मैं अब आश्वस्त हूँ। तुम कभी किसी का बुरा नहीं करोगे मेरे बच्चे!-
खामोशी हैं
खामोशी हैं
ये कैसी खामोशी हैं
गुम सुम हुई है गलिया
गुमनामी की जरूरत
आखिर क्यों पड़ी हैं
पशु पंक्षी खुशीया मनाते
गंगा भी निर्मल हुई हैं
पर खेल प्रकृति का ये कैसा
ज़िन्होने इनकी खुशीया चुराई
आज उनकी मूर्त धूमिल हुई हैं
हवाओ का पैगाम भी बदला
प्रकृति की आँचल खिल उठी हैं
पर ज़िन्होने इनकी मुस्कान चुराई
दहलीज़ पे उनके मौत खड़ी हैं
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वो फूल नहीं...
🌸फूलों की टोकरी थी...
वो सचमुच...👌😘
कमाल की छोकरी थी...-
चारों तरफ ख़ौफ की धुंध और मौत का कोहरा हैं
कोरोना तो सिर्फ़ प्रकृति का इक मोहरा हैं
ये तेरे ही दिये घावों का अंजाम गहरा हैं
देख आज बिना पिंजरे तुझपे हर पल पेहरा हैं...
©कुँवर की क़लम से....✍️
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खूबसूरत है प्रकृति का हर जीव , नष्ट कर रहा इंसान है,
चित्रण देख के भवसागर का, जानवर बन रहा इंसान है।-
खूबसूरत सी प्रकृति, पशु बने इंसान,
मर रहा भविष्य, जानवर बन गया इंसान।।-
व्यर्थ ही करते रहे कवि
प्रकृति का मानवीकरण,
छीनते रहे वे
प्रकृति की कोमलता
साहित्य से,
अच्छा रहता यदि
किया गया होता
साहित्य और जीवन में
मानव का प्रकृतिकरण।-
आकाश की थाली पर लाली चमक रही है,
पाखड़ के झुरमुटों में बुलबुल फुदक रही है,
कुछ शेष रह गयी हैं नभ में मयंक-रश्मि
अभी बीतने में रजनी विलम्ब कर रही है।
उषा सँवर रही है।।
लो! चंद्रमा ढिबरी की ज्वाला घटा रहा है,
कोकिल हो मग्न वृक्ष में गाना सुना रहा है,
आलोक लोक में अब बढ़ता ही जा रहा है,
अंधकार की गोदी में किरणें बिखर रही हैं।
उषा सँवर रही है।।
तारों की कणिकाएँ विलुप्त हो रही हैं,
क्षण-क्षण में जैसे इक-इक ये सुप्त हो रही हैं,
क्या चोर हो गई है देखो तो यह विभारी
चुन-चुन के वज्रमणियाँ झोली में भर रही है।
उषा सँवर रही है।।
पर्वत शिखा पर जैसे सिंदूर गिर रहा है,
लता के तंतुओं पर दानु भी पिर रहा है,
क्या अर्क का धरा से विवाह हो रहा है
धारण किये मालाएँ धरती निखर रही है।
उषा सँवर रही है।।-