अपने किरदार में
ना जाने कितने पैबंद लगा रखे थे
समय की रगड़ जरा तेज क्या हुई
हम तो जर्रे जर्रे से उधड़ने लगे ..!!-
यह जो तुम दिन भर 'शेड्स' लगा कर घूमती हो
पता ही नहीं चलता
कब देखती हो, कब 'घूरती' हो
ज़रा इन 'नशीली' आँखों से
कभी यह 'पैबंद' भी हटाया करो
हमको इन आँखों में थोड़ा तो डुबाया करो
यह अपना फ़ोकट का 'स्वेग़'
किसी और को दिखाया करो
'बेमतलब' मेरी जान ना जलाया करो
ख़ुद तो हमारी आँखों की
सारी 'शरारत' देख लेती हो
हमारी बारी आती है तो
इन 'अजीब' शेड्स से ढँक लेती हो
सच कहूँ तो यह 'कम्भख्त' मुझे 'सौतन' लगते हैं
जो तुम्हारे मेरे बीच, 'दीवार' बन रहते हैं
अबकी बार जो तुम, इन्हें हटाओगी
मैं चुरा लूँगा इन्हें, तुम ढूँढ ना पाओगी
इसमें भी मेरा ही नुकसान है
फ़िर नये ख़रीदोगी और
मेरी ही जेब पर, 'उस्तरा' मारोगी
पर बीच के इन कुछ लम्हों में मेरा काम हो जायेगा
इन नशीली आँखों का 'दीदार' हो जायेगा
सुनो! 'वैसे तुम शेड्स में अच्छी लगती हो'
- साकेत गर्ग-
न ही सुई मैं बना, न ही मैं धागा हूँ
पैबंद भी बन न पाया, ऐसा अभागा हूँ-
पशमीने सी मुस्कुराहट यूं ही नहीं खिलती
पैबंद लगे दोशाले ही संभाले अबतक ।
प्रीति-
कैसे कैसे शब्दों के पैबंद लगाकर घूम रही है कविता
सुना है, बहुत आधुनिक,बहुत अतुकांत हो गयी है कविता-
चंद खोटे सिक्के बचे हैं जेब में,
नुमाया हो रहे हैं पैबंद कपड़ों पर;
क्या हुआ लेकिन अल्फ़ाज़ से अमीर हूँ।-
मैं वो कपड़ा बनी, चीरती जिसकी छाती सुईं चली
धागे की सीवन समय से निकली, मैं फेंक दी गयी-
गले हुए से कपड़े का पैबंद ज़िंदगी
इक सिरा सिया नहीं दूजा उधड़ गया ......-
पैबंद
ये जो दिन रात मैं रिश्तों की,
तुरपाई करने में लगी थी,
खोखले निकले सारे रिश्ते,
कितने पैबंद लगाए मैंने,
पर सारे निकले कच्चे धागे,
एक सिरा क्या खिंचाया,
उधड़ गए सारे रिश्ते....-