जो सम्पति परिश्रम से नहीं अर्जित की जाती, और जिसके संरक्षण के लिए मनुष्य का रक्त पसीने में नहीं बदलता, वह केवल कुत्सिक रुचि को प्रश्रय देती है।
सात्विक सौन्दर्य वहाँ है, जहाँ चोटी का पसीना एड़ी तक आता है और नित्य समस्त विकारों को धोता रहता है। पसीना बड़ा पावक तत्व है मित्र, जहाँ इसकी धारा रुद्ध हो जाती है वहाँ कलुष और विकार जमकर खड़े हो जाते हैं।-
मनोबल का माप परीक्षा के दिन नहीं,
परिश्रम करने की अवधि में होता है।-
ये डूबता हुआ सूरज भी ना
शाम बड़ी हसीन बना देता है
पर जनाब इसके लिए उसे
दिनभर जलना भी तो पड़ता है ।-
पँखे की जैसी ही तो है फ़ितरत इंसानी
घूमेंगे जितना उतनी धूल आएगी विचारों की
गतिहीन रहे फ़िर रुका रहेगा सबकुछ
ज़रूरी है बस चलते जाना।-
सब कुछ नियति के ऊपर ही नहीं छोड़ देना चाहिए ,
कुछ चीजें पाने के लिए मेहनत भी करना चाहिए ।-
कल पूछता था ना कंकड़ जिसे
आज हिमालय उसका पता पूछता है
नंगे पांव जो चला अविश्राम,
ना देखा उसने छालों को
देखो तो आज सारा जहां ,
उसके पीछे चलता है
हिमालय उसका पता पूछता है......
घर्षण कर विराट पाषाण से
जिसने राह बनाई है
उसने ही तो सुमनसज्जित
मंजिल पाई है .......
कल ना पहचानती थी दुनिया जिसे ,
आज हर कोई उसके नाम से
अपनी पहचान बनाता है ।
हिमालय उसका पता पूछता है........-
💕 मेरे कान्हा कहते है 💕
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सफलता के लिए फल की कामना न करे
हमे अपना कर्म करते रहना चाहिए ,
स्वर्ण को भी कुन्दन बनने के लिए
ताप सहना होता है ,
हीरे को भी चमक पाने के लिए
सान पर स्यमं को घिसना पड़ता है ,
इसलिए अगर सफलता की चमक चाहिए
तो परिश्रम करना पड़ेगा और कठिनाइयों
का सामना करना पड़ेगा ,
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क़िस्मत का हैं खेल यहां,
पल भर में जिंदगी बदल जाती हैं।
रास्ता हों चाहें कांटो का भरा,
सफ़ल अनुभव का सबक दे जाती हैं।
अगर किया हों कठीन परिश्रम तो,
अंधेरों में भी सफ़लता की रोशनी नजर आ ही जाती हैं।-
प्रिय, मैं जानती हूं..
कि, तुम मेरे लिए चांद-तारे तोड़ सकते हो।
मेरे मार्ग में आने वाली पथरीली भूमि को
सुंदर पुष्पों से कोमल बना सकते हो।
तुम्हारी भुजाओं में इतना बल है
यदि तुम चाहो, मेरु पर्वत उखाड़ सकते हो।
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तुम्हारी सामर्थ्य पर
मुझे किंचित मात्र संदेह नहीं
:
किन्तु, प्रिय
आज जब मैंने ,
मेरे द्वारा स्वयं रोपे गए,
पौधे से एक मिर्च तोड़ कर
व्यंजन तैयार किया...
तब मैंने जाना कि, मिर्च भी मीठी हो सकती है...!
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तुम्हारे प्रेम एवं परिश्रम का, मैं सम्मान करती हूं, प्रिय
किन्तु, मेरी संतुष्टि हेतु, कुछ उद्धम मुझे स्वयं भी करने दो, प्रिय।-