ज़ख़्म सूखा और धरा को हरा होना चाहिए
पानी आँखों से नहीं, नदियों में बहना चाहिए
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सुना समन्दर ने नदियों से बगावत कर ली ।
बिना सोचे ही आफतों की दावत कर ली ।।
बदल चुका है बूंद बूंद खारे पानी में ।
लगा है थकने अब भरी जवानी में ।
न जाने क्यूं बैठे बिठाए गज्वा मुबारक कर ली।
सुना समन्दर ने नदियों से बगावत कर ली ।।
हो के खफा नदियां मुंह फुलाए बैठी है।
जरा सी बात पर जिद लगाए ऐंठी है ।
भरी बरसात में जेठ सी बनावट धर ली ।
सुना है समंदर ने नदियों से बगावत कर ली ।।
बन के बिचवा इन्हें कौन मनाने जाएगा ।
कहें गर मेघ से तो वो बहुत इतराएगा।
बैठे बिठाए घर में बैर की मिलावट कर ली ।
सुना है समंदर ने नदियों से बगावत कर ली।।
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भोगना होगा समंदर को इक लम्बा वनवास
नदियों ने अब खुद को मिटाना छोड़ दिया-
दुःख..., सुखों का सृजन समय है।
... तुम्हें दुख कि तुम्हारी आकांक्षाओं के मोती
अधभर... राह में ही रह गए
संभवतः ...
देर लगे उन्हें सुमिरनी बनने में...
(संपूर्ण रचना अनुशीर्षक में)-
(इश्क़ चला महाकुम्भ )
चलो प्रिय महाकुम्भ लगा है स्नान कर आते है
इश्क़ में हुए पापो को हम मिलकर धो आते है
जैसे सागर लीन नदी में मुझे भी तुझ में समाना है
अब इश्क़ को सरस्वती गंगा जैसे पवित्र बनाना है
तेरी मुहब्बत में इतना डूब जाऊँ राधा सी मैं बन जाऊँ
तुझ संग जीवन अमृत पीने नदियों के मिलन पर जाना है
सुना है साधु संतो का होता बसेरा शक्तियों का होता वास है
चल डुबकी लगाये हम भी प्रेम ऊर्जा को फिर पाना है
सूर्य चंद्र सभी देवता करने आते जहाँ स्नान है
हाथ पकड़ मेरा, तर जाये हम भी,फैला वहाँ ज्ञान है
चल उस नगरी डाले डेरा जहाँ अदृश्य शक्तियाँ लगाये फेरा
"मीता"इश्क़ हमारा हो जाये पवित्र ऐसे पावन धाम जाना है!-
नदियों को समंदर बनने का बहोत शौक है मगर
मुमकिन नहीं समंदर के साथ रिश्ते किए बगैर ।
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ग़म के माहौल में नदियों सी बहती है।
खुशी के पल में बारिश के बूंदों सी छलकती है।
कभी - कभी आंखों में ही तैर कर रह जाती है।
ये आंसुओं की भाषा.. कठिन है इनकी परिभाषा।-
*हमारी उपलब्धियों में
*दूसरों का भी योगदान
*होता है क्योंकि...
*समन्दर में भले ही
*पानी अपार है पर सच
*तो यही है कि वो*
नदियों का उधार होता है...!!-