अरे! जब द्रौपदी के उस चीरहरण को,
द्वापर ने छोड़ा ही नही,
तो कलयुग को क्या वीर समझते हो!!-
संदेह होता है आज कान्हा तुझ पर भी...
क्या वाकई कभी तूने द्रोपदी को, चीर हरण से बचाया था
क्या कभी तूने महिला की इज्ज़त बचाने हेतु, शस्त्र भी उठाया था
आज हर दिन कितनी ही द्रोपदियों का चीर हरण यहां किया जाता है
टोली में दरिंदो द्वारा नारियों को वस्त्रहीन कर दिया जाता है
कितने हैं कौरव यहां, लेकिन पांडव कोई न दिखता है
कितने हैं राक्षस यहां, लेकिन कृष्ण कोई न दिखता है
कान्हा ! क्या सिर्फ एक द्रोपदी को बचाना ही तेरा फर्ज था
या कहूं मैं, की तुझ पर उसका कोई कर्ज था
जीवन तूने हमें दिया, जिंदगी तूने हमें दी,
तो नारियों के सम्मान को बचाना भी तो तेरा ही फर्ज़ था
अगर चला ही गया इस दुनिया से तू, तो भूला देंगे हम तुझे भी अब
बस इतना बता दे तू कि किसने किया तुझसे आखिरी अर्ज था
क्या बाकियों को बचाने का कुछ नहीं तेरा फर्ज़ था
क्या तुझ पर सिर्फ उस द्रोपदी का ही कोई कर्ज था,
उस द्रोपदी का ही कोई कर्ज था.....— % &-
द्रोपदी को हक था
अपना.इच्छित वर चुनने का
कर्ण को भी हक था
अपना स्वामी चुनने.का
उसको कायर कौरव ने
बलि का बकरा बनाया था
स्वयं.दुर्योधन ने भी
सेनापति नहीं केवल
अंगराज बनाया था
अक्सर हीन भावना को
जग हमेशा छलता है
धर्म चेतावनी देता है
कुसंग प्राण ही लेता है
मित्र धर्म से भी बडा
धर्म न्याय का होता है
भीष्म द्रोण की कौन सुने
सब दुर्योधन का इशारा होता है
अधर्म तो बस अस्त्र बनाता
निर्बोध अनुचर कर्णों को
धर्म वध.करता है अधर्म का,
नहीं देखता वर्णों को
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द्रौपदी
जिस तरह द्रोपदी का हरण चीर था
नारी लज्जा थी मन में बड़ा पीर था
सभा वीरों की है शूरवीरों की है
फिर भी नारी की लज्जा बचाएगा कौन
कोई पिता सा यहां कोई है पितामह
पति पांच हुए फिर भी आएगा कौन
कैसी जग की है रीति नारियों से है प्रीत
सुख की आशा करें दुःख में नां कोई मीत
ऐसे वचनों से उसके नयन नीर था
नारी लज्जा थी मन में बड़ा पीर था ।
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हर युग मे
समाज ही समर्थक रहा है स्त्री के अपमान में
सीता की परीक्षा और द्रोपदी का चीरहरण आज भी खलता है इतिहास में
पांडवो की निष्क्रियता ,पितामह का मौन
अखरता है शांत सभा मे
कहते हो,,
महफूज़ रहेगी घर के बन्द दरवाज़ों में
तो द्रोपदी कहा लूटी थी !!??
घर मे या बाज़ारो में ???-
चीर हरण
पांडु पुत्रो का मान टूटा ,भरी सभा में धर्म लुटा
छल ने अपना पैर पसारा,दयुत क्रीड़ा में सत्य है हारा
मौन खड़ा आर्यावर्त तक रहा,काल क्रीड़ा का स्वाद चख रहा
देख मनुज भयभीत हो रहा,सत्य अपना अस्तित्व खो रहा
दुर्योधन सीमा पार कर रहा,भाई का अपमान कर रहा
धन सम्पदा मान प्रतिष्ठा, अधर्म से वो दंभ भर रहा
पाप उसके सर को चढ़ा जब, कुल मर्यादा का नाश हुआ तब
भाभी है कुदृष्टि दाली , कुल वधू की लाज़ न पाली
दुशासन रानी वास गया जब, रानी वास में युद्ध हुआ तब
नारी का सम्मान लड़ रहा, गौरव की हुंकार भर रहा
किन्तु पाप का पलड़ा भारी है, नारी गरिमा भी हारी है
दुशासन अपनी भाभी को केश पकड़कर खींच रहा
पांचाली की चीखो से राज महल है गूंज रहा
कौरव वंश की राज वधू का कोरवो ने अपमान करा
कौरव कुल भूषण ने भी आज सभा में मोंन धरा
धृतराष्ट्र की राज सभा का हर ज्ञानी नेत्रहीन हुआ
याज्ञसेनी के चीर हरण का जब सभा में विचार हुआ
वधू का अब विश्वास उठ गया और सारा संसार लुट गया
तब हरी भगिनी ने हरी को पुकारा, कृष्ण बना उसका रखवाला
सारी सभा निर्वस्त्र हो गईं, अपना सारा मान खो गई
नारायण ने अपना खेल दिखाया, पांचाली को कोई छू भी ना पाया
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सुनो!!! द्रोपदी (लड़कियों),,,अब शस्त्र उठा ही लो,,,,क्योंकि
तुम्हे बचाने अब कृष्ण नहीं आएंगे !!!!
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द्रौपदी का कर्ण के प्रति रोष "निर्वेद की क़लम से
कलियुग के कवियों क्यों कर्ण कर्ण करते हो ..?
क्यों कर्ण को इतना महिमामंडित करते हो ..?
क्या कर्ण दूध का धुला था..?
पतित कौरवों की पाप की छत्र छाया में फला–फूला था
यदि वो सच में था इतना महान
तो मेरे वस्त्रहरण पर क्यों कहता रहा बार बार ..?
"कर दे नग्न इसे दुशासन
करता रहा अबला नारी की अस्मिता को तार तार
करता रहा वो भी अपने शब्दों से मेरा बलात्कार....बार बार...
इसी अंगराज ने भरी सभा में कहा था
जब इस वेश्या के पहले से है पांच पति
तो फिर छठवें सातवें से क्यों आपत्ति ..?
हर छल कपट षड्यंत्र में ये कौरवों के साथ था
इक नारी के अपमान इसका भी बराबर हाथ था
माना सूतपुत्र कहकर उसका अपमान किया गया था
किंतु उसने भी कब नारी का सम्मान किया था
नारी को उसने भी समझा भोग विलास की वस्तु
जैसे वो हो कोई एक निर्जीव वस्तु
तुम भले जग के लिए राधेय हो या कोंतेय, किंतु तुम मेरे लिए हो निष्ठुर.. निर्दय ..
कवच कुण्डल दान देने से हो तुम हो गए भले दानवीर कर्ण
किंतु"निर्वेद"की दृष्टि में रहोगे, तुम सदैव दीन हीन कर्ण...-