कई दिनों बाद मिल रहे थे हम, मैंने ही पूछ लिया कहॉं है तुम्हारी पोस्टिंग।
जैसलमेर...
मैं जरा रुकी और पूछ ही लिया.. पर क्यूँ इतना दूर ??
यहाँ बारिश बहुत होती है और बारिश में तुम याद आती हो।-
फ़र्क़ बताऊँ ?? क्या है ??
तुम्हारे और मेरे प्रेम में !!
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हम दोनों एक से थे
जिस माटी और पत्थर से तुम बने
मैं भी बनी थी .. उसी गारे से
तुम प्रेम में ऊँचे .. और ऊँचे उठते गए
मैं प्रेम में .. जर्जर .. और जर्जर होती गई
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जब डूब गया .. तुम्हारे प्रेम का सूरज
तुमने ढ़ेरों साधन अपनाए
लगाया लोगों को गले .. जो तुम्हारा मन रख सके
तुम्हारी अंतिम श्वास तक
और तो और ..
तुम्हारे मन पर बैठे उन ठेकेदारों के हाथों
तुम लुटा चुके .. स्मृतियां सारी
अब तुम किला तो हो .. लेकिन
तुम में .. तुम जैसा अब कुछ नहीं
तुम में श्वास लेता है .. तुम्हारे मन के ठेकेदारों का कुनबा
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मैं .. अपने लिए क्या कहूँ ??
अतिशयोक्ति का आरोप लगेगा मुझ पर!!
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लेकिन ! कहना कभी कभी ज़रूरी होता है ..
कि हवाले से ख़ामोशियों के .. कुछ चीख़ें
आज भी छलनी करती है .. मेरी दीवारें !!
तुमने लोगों को अपना लिया प्रेम से रिहाई में
मुझे आज भी .. लोगों से ख़ौफ़ आता है।
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तुम्हें मर मर के जीना होगा सुनहरा सोनार हो !
मैं मर के खुश हूँ .. कि कुलधरा हूँ मैं !!-
इस गलतफहमी में मत रहना की काबिल नहीं है हम,
वो आज भी तडफ रहे हैं जिन्हें हासिल नहीं है हम।
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कितनी यादें कितनी बातें पिछे छुट गई हैं
वो बालपन्न वो चंचल मन सब पिछे छुट गई हैं
वो जीवन का अद्भुत अभिन्न अंग महज़
ख़्वाब सी आंखों में सज गई है
वो पल वो एहसास मानो कहीं काफुर हो गई है
जिसके होने से रंगबिरंगी थी जिदंगी की डायरी
वो मानो धूमिल हो गई या यूं वो पन्नें न जानें कहां खो गई है
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दिन जैसलमेर की
गर्म रेत से तपते रहे
रातें कच्छ के सफेद
रण सी ठंडी रहीं !!
हम शीश महल के
गलियारों में खुद को
खोकर खुद को ही
पाते रहे और नसीब !!
हमसे ही टकरा अक्सर
टूटता रहा...छूटता रहा...
एक अनाम सफ़र में
ख़ाक होती रही ये
ज़िंदगानी...
रास्ते राजमार्गों से
हमेशा दौड़ते ही रहे !!
धूल का ग़ुबार लिए
वक़्त रीतता ही रहा...
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जद जद ई केई भोले जिवड़े नो सतायौ हे नी,
उनो माफ़ी को मिली नी,
आज नी काल भुगतियो पर भुगतियो जरुर,
वा भोलो जिव्ड़े री मजाका उड़ाई हे नी,
उनो गोबो मिलियो क्युकी वा एसे रे सोमे ई जोयो,
सच माथु पर्दो उठ हे जरुर आज नी काल पर सबोने था पधए जरुर।-
अरे पढ़ले लिखले भायला,
तू घुमले दुनिया पूरी
पण भादवे रे महीने माथै
आ जो जियो ओ
खम्मा खम्मा खम्मा रे कंवर अजमाल रा,,,
अठे खेजड़ली भी गावे बाबा,
मोरुड़ा भी गावे
अरे धोरां वाली धरती भी हुलसै जियो ओ
खम्मा खम्मा खम्मा म्हारे द्वारिका रे नाथ ने-
अमर शहीद राजेन्द्र सिंह जी भाटी।
निज सौणी (कोम) पिला, पावन किया जिसने,
जैसल धरा की माटी को,
मैं नमन करती हूँ उस रजिन्द्र सिंह जी भाटी की।
28 सितबंर को जब दुश्मन ने धावा बोल दिया,
कूद पड़ा वो जंग में बिना परवाह किये जीने-मरने की।
था उसे निभाना, अपने बलिदानी की परीपाटी की,
मैं नमन करती हैं..............
शत्रु के छक्के छुड़ा डाले, ऐसा वो हिम्मतवाला था,
नही फ़िक्र जिसे मौत की, ऐसा वो मतवाला था।
3 रेन्जर्स की कब्र बना दी, जिसने कश्मीर की घाटी को,
मैं नमन करती हैं..............
वीरगति या विजय भावना थी उसके मन की,
रजपूती खून दौड़ा रहा था, रग-रग मे जिसके।
जान लूटा दी अपनी भारत माँ की माटी के वास्ते,
ऐसा वो देशप्रेम का दिवाना था,
खून बहा के अपना, जिसने स्वर्ग बना दिया कश्मीर की धाटी को
मैं नमन करती हैं..............
अपनी वीरागंना की चुड़िया खनकती छोड़ गया वो,
नन्हें बेटे की चहकता छोड़ गया था वो।
दादी की बाँहो की तरसता छोड़ गया वो,
अगली छुट्टी में घर की छत बनवाने के वादे छोड़ गया वो,
लिपट गया भारत माँ की बाँहो में, मिट्टी की लाज बचाने को,
मैं नमन करती हैं..............
पीठ नही दिखाई जिसने, सीने पे गोली खाई थी,
जिसे लेने डोली विधाता की स्वर्ग से आई थी,
28 सितबर को सहादत दी जिसने, छूने नही दिया माटी को
मैं नमन करती हैं..............-