बालकनी के
ठीक सामने ही था
एक नीम दूसरा
आँवले का पेड़
शाम तलक छाए
थके नीले आसमां पर
बादल रुई के फाहे से
बिखर जाते थे
कोई ख़ुश्क हवा का झौंका
नीम की पत्तियों से होकर
बालों में जैसे उंगलियां
फेरे गुज़र जाता था
कुछ दिनों बाद
इस घर इस शहर से
चले जाऊंगा
सब समेट लूंगा मगर
कहां ले जा सकूंगा
ये फ़लक ये बहती
बाद-ए-नसीम
शायद ये ज़िंदगी
फिर तरसे उसी
फुर्सत के लिए
कुछ शामें जो कि
तस्कीन बन कर आईं
धूप में जले दिनों के बाद !!-
गत्ते के डिब्बों में
सामान बांधा जा रहा था
मैं समेट रहा था
वो सब कुछ जो कि
गुज़रे तीन सालों में
बिखरा लिया था इस
कम्बख़्त ज़िंदगी ने
कपड़े-लत्ते
आधी पढ़ी किताबें
उनके किरदार
चाय के कप,तश्तरी
बालकनी में टँगी
विंड चाइम और
उसकी दी हुई
आधी-बांह की स्वेटर
यकायक कोई
हवा का झौंका
बालकनी से लगी
खिड़की का पल्ला
खुला छोड़ गया था
जाकर देखा तो
नीम के सफ़ेद फूल
और कुछ आंवले
पड़े रह गए थे
बालकनी के फर्श पर-
सिर पर घूमता पंखा
और उसके पीछे फ़ैली
सफ़ेद पलस्तर की छत
दोनों सब देखते रहे
अजनबी शहरों की
तंग गलियों में महीनों
रायगां होती ज़िंदगी
उम्मीदों का दामन थामे
कागज़ी इम्तेहान देने
इस डगर उस नगर
बेसुध बिन रुके
दौड़ते क़दम
दोनों ही की आँखों
के नीचे रीतता रहा
सबकुछ मगर
बदला कुछ भी नहीं
मैंने ईश्वर से
अपने जीवन में
स्थिरता चाही थी
वरन मुझे गतिहीनता मिली
पंखा और छत
चश्मदीद हैं
एक आदमी की
शांत मृत्यु के !!-
अजीब धृष्टता
रही इस दिल की
धूमिल सी उम्मीदें लिए
निरंतर चलते रहे
मीलों के सफ़र
तय कर डाले
और अंततः
पाया कुछ भी नहीं...
बाबा
हथेली में तंबाकू
रगड़ते हुए अक्सर
कहा करते थे
आदमी से ज़्यादा
हिम्मत-वर और
मजरूह प्राणी कोई नहीं !!-
और फिर !
अंततः
हम इस बात पर
भी राज़ी हुए
बरसों बरस
इंतज़ार किया
आज नहीं तो कल
वो लौट कर आएगा
जब भी जैसे भी
अपना लेंगे उसे
गले से लगा लेंगे उसे !!-
प्रिय मिताली !!
तबादले के बाद
जब आना हुआ था
इस शहर और इस
किराए के मकान में
तब बिल्कुल न फबे थे
इन दीवारों के रंग मुझे
एक दिन अज़ाब में
महसूस किया मैंने
इन्हीं कठोर दीवारों को
रखते हुए अपना हाथ
आहिस्ते से मेरे कंधे पर
मेरी पीठ को अपने सहारे
थपथपाते हुए !!
आज घर से निकल
जब सूटकेस चौखट से
बाहर रखा साँकल चढाई
दरवाज़े पर ताला जड़ा
दीवारें अपलक बस
देखती ही रहीं जैसे
मौन होकर कह रही हों
जा रहे हो !!
जल्दी लौटना !!
~एहसास
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दिन ढलते
दफ़्तर से निकल
घर जाते क्यों नहीं
है कैसी बेड़ियाँ पैरों में
ज़ाहिर-ए-जज़्बात किसी से
बतलाते क्यों नहीं
मेरे अब तक गुज़रे
माज़ी के तसव्वुर
से हिरासां हूँ मैं
उन ला-हासिल
रास्तों का सबब तो
कुछ भी नहीं
है कैसी
ग़ारत-ए-ज़िंदगी
ज़िंदा हूँ या मुर्दा
कोई पूछता ही नहीं
वहाँ कौन है तेरा
घर जिसे कहते हैं
मेरे सिवा कोई जहां
रहता भी नहीं
नाते ही बस बनाए
अगली ज़िंदगी
मेरे हम-दम
दुश्मन ज़रूर बनाना
कमोबेश तन्हाइयों में
याद करेंगे !!-
सोचा था ये बढ़ जाएंगी
तनहाइयाँ जब रातों की
रस्ता हमे दिखलाएगी
शम्मे-वफ़ा उन आँखों की
चेहरा तेरा दिल में लिए
चलते रहे अंगारों पे
तू हो कहीं,सजदे किये
हमने तेरे रुख़सारों के
हमसा न हो कोई
दीवाना !!
~मजरूह सुल्तानपुरी-
दिनभर लू सी
फ़ज़ा में चलती रही
शामें हल्की सी
जब डूबने लगतीं
चौराहे भर उठते
गन्ने के रस की
रेहड़ियों से !!
पैसे देने के लिए
जब बटुआ निकाल
सौ रुपए का नोट
उंगलियों से छुआ
नोट का खुरदुरापन
उंगली के पोरों से हो
मन में घर कर गया
हर माह ही आकर
जाती रही हो तुम
तुम्हें छूकर कभी
पर्स की जेब में
दबे-मुड़े हुए नोट के
रूप में...
महसूस किया मैंने
महीने भर तलक
नौकरी की धूप में कढा
कुल्फ़त की भट्टी में
राख हुआ मैं !!
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