Kalp Saxena   (एहसास)
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सिर्फ़ एहसास हैं ये...रूह से महसूस कीजिए
Joined 21 March 2019


सिर्फ़ एहसास हैं ये...रूह से महसूस कीजिए
Joined 21 March 2019
2 SEP AT 0:03

तुम्हारे दर से लौटते हुए
मुझे ये एहसास नहीं था
की तुम्हारे शहर तक
जाने की दूरी मेरे लिए
तय करने लायक
इस संसार की सबसे
लंबी दूरी बन जाएगी

तुमसे रूबरू मिल पाना
तुम्हें देखना मुक़ाबिल
इस ज़िंदगी का आख़री
सानेहा रहेगा

कैसे-कैसे तराशे थे ख़्वाब
घड़ी भर की मुलाक़ात में
एक आशियाना बनाया था
दरवाज़े पर तुम्हारी
नेमप्लेट लगाई थी

तसव्वुर में ही सही ये
झूठी उम्मीद सी रहती है
मेट्रो में चढ़ने के बाद
दरवाज़े बंद होने के
ठीक पहले

तुम्हारी आवाज़ पीछे से
मुझे रोक लेगी अचानक
जा रहे हो,फिर लौटना
इंतज़ार करूंगी !!

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1 SEP AT 0:07

प्रिय मिताली

कभी खून जलाकर
हासिल की गई ये नौकरी
अब कैद सी लगती है
दिन अब जिए नहीं जाते
घड़ी की सुइयों संग
ख़त्म होने के इंतज़ार में
बस गुज़ारे जाते हैं

ज़िंदगी रोज़ एक नया
पेंच कसती है जब नसों पर
तो यही लगता है कि
छोड़ दूँ सब और
भाग जाऊं दूर कहीं !
लेकिन भाग कर भी
जाऊं कहाँ किसके पास

इस दरिया -ए-सफ़र का
हासिल तो कुछ भी न रहा
एक उम्र फ़ना हुई चलते-चलते
हाशिए में रवां होती रही ज़िंदगी
किसी की आँखों का इंतज़ार
दिल की ख़्वाहिश न बन सके

लोग देख कर आगे बढ़ जाते हैं
कोई तो रुका होता कभी तो कहीं
अपना लिए गए होते "एहसास" !!

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28 AUG AT 23:38

रात के नौ बजे थे
रसोई की बत्ती जली
कूकर की चार सीटियां बजीं
चप्पलें पहने दो
कदमों की आवाज़
फर्श पर चलने लगी
अगल-बगल के
घरों की खिड़कियों से
कुछ चेहरे झाँक कर
देखते हैं जाने क्या
काना-फूसियाँ करते हैं

कौन शक़्स है कबसे ठहरा
उस फ्लैट के दरवाज़े
तो खुलते बंद होते
देखे नहीं कभी

पके हुए बासमती
की महक कमरों में
फैल जाती है
रेडियो पर कोई पुरानी
धुन गुनगुनाती है
कमोबश दिन के
एक वक्त तो ये घर
घर सा लगता है
तसल्ली मिली ये
पड़ोसियों से सुनकर
इस घर में रहता है कोई

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11 AUG AT 0:55

कश्मकश-ए-ज़िंदगी से
क्या-क्या न रंज मिले थे
कैसी-कैसी न गुज़री थीं राहें
तक़दीर-ए-हासिल से कभी
एक फ़क़त तुम मिली थीं
सायबान में जिसकी
तलाशी थीं पनाहें

तुम्हारे आख़री दिनों के
सुलूक ने मगर कैसे-कैसे
न क़हर बरपाए हैं
ए'तिबार के वो पुख्ता मकान
अब टूट कर ज़मीदोज़ हैं
मेरे शहर का मौसम
ग़म-ज़दा है

सबकुछ लस्त-लस्त है
बे-काईदा है मगर तुम
दिल के किसी कोने में
हाफ़िज़ हो अब भी
मैं तुम्हें ढूंढता नहीं मगर
तुम नुमायाँ हो हर-तरफ
दस्त-ए-सबा में,गीतों में
कभी यादों में

तुम घर कर चुकी हो
दिल के उन कोनों में
जहां मेरे हाथ भी अब
पहुँचते नहीं !!

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7 AUG AT 23:18

बागीचे में छाई खिज़ा
ये कोई आज-कल की
आब-ओ-हवा तो नहीं

धूप भी वही थी
पैरों की मिट्टी भी वही
हर नई रुत खिल आने वाले
फूलों ने मगर एक दिन
आना छोड़ दिया

शाखों पर लदे पत्तों ने
खो दिया अपना हरापन
परिंदों की कूक बुझ गई
शाम तक जहां लौट आते थे
वो घोंसले वीरान हो गए

तीन मासी का पतझड़
एक दिन में नहीं आया
उन बहारों को क्या इल्म
की एक उनके इंतज़ार में
कितने ही बुलंद-ओ-बाला
शजर ख़ाक हो गए !!

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7 AUG AT 0:57

नौकरी की रवायतें
अब पहले सी नहीं रहीं
कुछ पेंच कसते हुए
कहता है चीफ़ मेरा
की इस तरह से काम
अब नहीं चल सकेगा
बेहतर होगा तुम अब
काम छोड़ दो

बहुत ही ख़स्ताहाल
सा बदन लिए जब
खोलता हूँ शाम तले
घर के दरवाज़े तो
एक गर्म सी हवा
छू कर गुज़र जाती है
बल्ब की पीली रौशनी
में नुमायाँ हो जाते हैं
कमरे के ख़ाली कोने

मैं बहुत देर तक
निहारता हूँ दीवार पर
टँगी हुई तुम्हारी तस्वीर
इसी उम्मीद में की शायद
तुम एक दफ़ा बोल पड़ो
आज फिर देर करदी
तुमने आने में
चाय रखी रखी कबसे
ठंडी हो गई है

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24 JUL AT 22:24

एक दिन
चलते-चलते थक जाएंगे
टूट कर राह में किसी
नशेमन सो जाएंगे

लटके रह जाएंगे कंधे से
शब-ओ-रोज़ के हंगामे
पलभर में धुंधला जाएगा
तमन्नाओं का सराब
कई रातों से हैं बेदार
थकन में चूर चश्म
बंद हो जाएंगे

हैरत-ए-ख़ेज़ है
जो कभी नहीं था मुमकिन
एक उम्र बीती तन्हाई में
हमसुखन अब लोग भी
पूछने आएंगे

ज़िंदगी दाइम रहेगी
साल बचे रह जाएंगे
हम ही किसी शाम
अचानक बीत जाएंगे !!

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21 JUL AT 20:28

बड़ी नर्म थी वो
सुबह जब मिली थी
दिन बढ़ते-बढ़ते
तेवर यूँ चढ़ा लिए
आया जब उसकी ज़द में
मेरी पीठ और गर्दन पर
अपने गर्म नाख़ून
चुभो दिए थे उसने

हाल ही में तो
बीती थी सर्दियाँ
छत पर पड़े हुए
तुम्हारी आग़ोशी में
बदन के चूल्हे तापे थे
दिन काटा था
तुम्हारा उतर जाना
दीवारों से मेरी
मेरी शामें रूखी कर गया था

तुम तो अक्सर
ठहरा करती थीं
खिड़कियों से आकर
चुपके से मेरे आँगन में
मेरी क्यारी में लगे
पौधों की पत्तियां
भी जला दी हैं तुमने
जाने क्या हुआ है तुम्हें
तुम इतनी ज़ालिम
तो न थीं !!

~एहसास

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18 JUL AT 23:26

प्रिय मिताली

एक कम शनिदा से
शहर के किसी
किराए के कमरे से
शुरू हुआ ये सफ़र
ये सफ़र अब छः
बरस का हो गया है
मिट्टी उखड़ आई है
इन रास्तों से मुद्दत
जूतों के खोल निकल
आए हैं...

तुम आकर देखोगी
तो पाओगी की मैं
उन सालों से भी अधिक
पुराना हो गया हूँ
तजुर्बे चाँदी दे गए हैं
मेरे बालों में
हसरतों का रंग
उतर गया है

सच कहूँ तुम्हें
कुछ भी न बदला है
सुबह से शाम ख़ाक
होते दिन-रात वही हैं
ज़िंदगी ने शहर-शहर
बस अपने घर बदले हैं

~एहसास

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14 JUL AT 0:08

नया शहर हो
नया मंज़र हो
आंखें वही पुरानी
भाने में वक़्त तो
लगता है

किसी डूबती शाम
सर-ए-राह चलते-चलते
मैंने देखा एक गहरी
नीली चादर ओढ़े आसमां
बिजली के तारों पर
दूर हदों तक
कतार में बैठे परिंदे
उनकी चहचहाहटों से
गुलज़ार समां

कोई नामी सड़क
कँवल के फूलों से
भरा एक तालाब
और उसके सिरहाने
मन्नत के धागों से
बंधा पीपल का पेड़ !!

किसी शहर से
इश्क़ करना हो
तो जनाब उसकी
शाम से मिलना...

~एहसास

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