भरी दोपहरी में मिले हो तुम मुझे छाँव की तरह।
सजी-धजी सी तुम शहर, मैं एक गाँव की तरह।।
ठहरा हुआ हूँ मैं समंदर, तुम हो नाव की तरह।
भरे हुए खुश्बू से तुम, मैं पवन बहाव की तरह।।-
काट दिए हैं पेड़ सब, कहीं नहीं है छाँव
कहते सीना ठोक कर, बदल रहा है गाँव।।-
।। Delicate By Mirza Galib Sahab ।।
नज़रें उठा के आज इधर देख लो साहब.
आ जाओ ज़रा मेरा भी घर देख लो साहब.
न जाने फिर सफ़र में,मुलाक़ात हो न हो.
कुछ देर हमारा भी नगर देख लो साहब.
तपने लगा है धूप से ये सारा तन- बदन.
कोई तो छाँव वाला शजर देख लो साहब.
रस्सी पे चल रही है ये लड़की गरीब की.
जीवन के एक रंग का,हुनर देख लो साहब.
मंज़िल की आरज़ू में चले प्यास भूल कर.
आए हैं करके यूँ भी सफ़र देख लो साहब.-
लौट रहे हैं फिर से ज़ालिम तपते दिन
कोई जाकर उनकी ज़ुल्फ़ों को बुला दे।-
धूप थी नसीब में फिर छाँव कहाँ से आये
कमी नसीब में थी फिर क्यूँ खुद में ढूँढी जाए-
यूँ जिंदगी की धूप छाँव से आगे निकल गये,
हम ख्वाइशों के गाँव से आगे निकल गये
तूफाँ समझता था कि हम डूब जायेंगे,
आँधियों में हम फ़िज़ाओं से आगे निकल गये।
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शहर में बसने वाला गाँव हूँ मैं
काँटों पे चलने वाला पाँव हूँ मैं
यूँ ही आग नहीं है मेरे शब्दों में
धूप में जलने वाली छाँव हूँ मैं
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मैं न शहर पर लिखता हूँ न गाँव पर लिखता हूँ
मैं न धूप पर लिखता हूँ न छाँव पर लिखता हूँ
मैं न आसमान को छूते हाथों पर लिखता हूँ
मैं न ज़मीन से जुड़े पाँव पर लिखता हूँ
इतनी दूर तक मैं जा ही नहीं पाता
मेरी कविताएँ घूमती हैं मेरे ही इर्द गिर्द
मुझ से मुझ तक
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पिता की देह अब सिकुड़ने सी लगी है
अब बरगद की छाँव भी चुभने लगी है।-
मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए-