घबराहट सी होती है
अकुलाहट सी होती है
कभी किसी कारणवश
कभी अकारण ही
बंद पिंजरे में
फड़फड़ाते पंछी सी
खुला आसमान जिसे
लगातार पुकारता सा
प्रतीत होता है
किंतु
बंधन तोड़ पाना
उसके वश में नहीं
और इस कुंठा से
मुक्ति का
कोई हल नहीं....
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परिवार के साथ कहीं जल्दी जाना हो ,
और बीबी तैयार हो रही हो ...
एक पहर तो लग ही जाता है
दिल जलता है सब देखकर धीरे-धीरे..!
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बाढ़
समंदर की लहरों में जो तरंग देखा
वो शातं भी और शातिर भी थी....
शायद
यह समंदर की प्रकृति भी....
जो
बाढ़ के जल में बेचैनी देखी..
ऊफान मारती जो लहरें दिखी..
व्याकुलता और अकुलाहट में
कितनी जान -माल समेटे..
और लोगों को बंजर कर
जाती दिखी...
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चिड़िया बैठी पेड़ पर बोली मन अकुलाय
हरा-भरा मौसम विनय मन क्यूं सूखा जाए-
प्रेम के आलिंगनों को कौन है व्याकुल नहीं..
पी सके जो आंसुओं को वो किनारा कौन है..,
हर मोड़ पर मिलती नई हैं प्रेम की अकुलाहटें..
प्रेम बस होता वही है स्वार्थ जिसका मौन है..!-
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बूढ़े खा गए देश को युवा कराहाता जाए
मुश्किल में बचपन बड़ा देख के मन अकुलाहए-
संवाद का सुख हैं नहीं
मौन में बस जी रहा
अकुलाहट इतनी कि
अखियां से नीर झर रहा-
अकुलाहटता प्रेम की पहली सीढ़ी और मौन प्रेम का अंतिम पढ़ाव जिसका आदि है ना अंत, ये ईश्वरीय अनुभव है। जहाँ परम शान्ति है, मिलन में भी और विरह में भी।
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आद्र नेत्रो से कब रुकती
अश्रु निर्झरिणी,
भवक्लांतो के विस्तृत
तिमरांचल से जिंदगी सनी
तेरे करो से मेरे लिए भी
कोई ज्योतिवाह बनी
या केवल तमश, अकुलाहट
भारी रातें मेरे लिए चुनी।
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