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छुट्टियों में
सब घर चले जाते हैं
और ख़ाली हो जाते हैं
होस्टल के वो कमरे
जहाँ दिन रात
देखा करते हैं सपने
कुछ बच्चे
जो कल
करेंगे निर्माण
एक नये समाज का
एक नये देश का।
उनमें कोई गाँधी
कोई सुभाष
कोई भगत
कोई कलाम है।
लड़ना सभी को है,
संघर्ष सभी के जीवन में है।
सिर्फ किताबों से नहीं मिलते
xxxxसबक जिंदगी के।xxxx
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होस्टल के दीवारों में झांक के देखा है मैंने
घरसे ज्यादा यादें मुझे वहां नजर आती है-
आप ही बताएं कि सभी विश्वविद्यालयों के
विद्यार्थी अपनी
हॉस्टल फीस
JNU के बराबर
करने की मांग
क्यों न उठाएं...?
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अमावस की काली रातों में भी अक्सर
गर्ल्स हॉस्टल की छत पर चाँद मेरा निकलता था,
धड़कने बढ़ती थी उसकी भी लाज़मी
जब देख उसे दिल मेरा मचलता था,
बालकॉनी से गली तक की ईशारों में वो बातें
फ़ोन पर बतिया कर गुज़ारी गई पूरी पूरी रातें,
कौन पहले सोया, फ़ोन पहले किसका कटता था
हिसाब करने पर हर बार दोष मेरा ही निकलता था,
कोचिंग छूटने का समय मालूम होने पर भी
हर रोज़ घण्टो पहले पहुंचता था,
इंतेज़ार करते देख मुझे तेरा तो चेहरा खिलता था
मगर तेरी हर एक सहेली का दिल जलता था,
कहाँ गया वो आलम
जिसके हर एक लम्हे से प्यार छलकता था,
उदास हो जाता है वो दिल जो कभी तेरे नाम से चहकता था
याद है मुझे, अमावस में भी चाँद मेरा निकलता था..-
आज भी याद है वो होस्टल की पहली होली। हमारी सीनियर्स ने कीचड़ ओर गोबर से क्या गहरा रंग बनाया था। हम तो अपने कमरों में दुबक गए थे। हममें ऐसी होली खेलने की हिम्मत न थी। जब दीदी लोग जोर से दरवाजे पर दस्तक देने लगी तो हम डर गए। आज तो कीचड़ में सनना लिखा था। परंतु कुछ देर बाद शांति हो गयी। शायद वो थक कर चली गईं थी। हम दरवाजा खोलने ही वाले थे कि पानी के बहाव के साथ हमारे दरवाजे के अंदर कीचड़ ने प्रवेश कर लिया था। हम दो घंटे बाद जब कमरे से बाहर निकले तो बाहर सूखते हमारे कपड़े कीचड़ और गोबर में सन चुके थे। ये हॉस्टल की पहली होली थी जितनी मुश्किल उतनी यादगार।
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आप कहते हैं जनाब बस बेटियां रोती हैं,
क्या मैं नहीं दुखों के बोझ ढोता हूँ?
हां मैं बेटा हूँ, फिर भी मैं रोता हूँ!!
मैं रोता हूँ जब बहन कंधे पर मेरा बैग लेकर होस्टल जाते समय दरवाजे पर आती है और मां के साथ बाकी घर वाले अंतिम प्रणाम के समय पॉकेट में कुछ पैसे रख देते हैं, मां कहती है कि पैसे देकर बिगाड़ रहे हैं उसे और वो चुपके से कुछ पैसे मेरे बैग के चेन में डाल चुकी होती है और अपना गुल्लक खाली कर बहन भी चंद पैसे इसलिए डाल देती है कि भैया के खर्चे अधिक हैं। हां अब किसी दूर की यात्रा पर जाता हूँ न तो बैग में मां के द्वारा जबरदस्ती रखे गए वो पेड़े और बिस्कुट के साथ पराठे और भुजिया की टिफिन नहीं होती, ना ही बहन द्वारा पैक किया बैग होता है जिसमें सारी जरूरत की सामान भरी रहती थी। अब तो खाना भी मेस का मिलता है जिसके आगे नाक सिकुड़ने का भी कोई फायदा नहीं और तब मैं रोता हूँ कि कैसे फेंक देता था थाली अगर जरा सी नमक फीकी होती थी और आज तो नमक का पता ही नहीं चलता है।
हाँ पहले पापा के सीने पर हाथ और शरीर पर पैर फेंक कर सोता था और अब अकेले सोता हूँ,
बस मेरे आंसू आंखों की दहलीज पर नहीं आते लेकिन सच कहूं मैं बेटा हूँ फिर भी मैं रोता हूँ,-
याद है वो दिन
जब हम पहली बार मिले थे
हमारी पहचान पापा ने करा था।
याद है, वो पहली क्लास
हम साथ तो नहीं गए थे
पर होस्टल लौटे साथ थे।
शायद हमारी दोस्ती उसी दिन से शुरू हुई।
शुरू में तुम, मुझे समझ में नहीं आती थी।
पर जो तुम मेरा ख्याल रखती थी वो अच्छा लगता था।
जब मैं क्लास से आने में देर करती थी तुम मुझे लेने आती थी, उस समय तो गुस्सा आता था पर जब तुम नहीं आती थी तो ये निगाहें तुम्हारा इंतजार करती थी।
वो हमारा साथ में खाना,
देर होने पे एक दूसरे का इंतजार करना।
ये छोटी सी बात हमें और नजदीक ले आई।
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पहली बार कक्षा 11 में देखा था,
सौंदर्य रूप,सुशील कला से भरपूर,
किताबों को गले लगा कर के,
माँ सरस्वती की उपासक सी,
वो होस्टल बाली लड़की थी।।
वो चंचल काया सी,
वो मृग नैनी छाया सी,
वो रूपवान,वो गुणवान,
वो मंद मुस्काती माया सी,
वो स्वर्गलोक कि अप्सरा,
वो मृत्यु लोक में प्यारा,
उसकी चाल हिरण सी,
उसकी बाल ऋचा सी,
हाय! इस स्वर्गलोक कि अप्सरा को,
किस राक्षस की नजर लगी,
नजर कहें,या कहें श्राप ?
जो भी लगी पर दुःखद लगी ।।
वो होस्टल बाली लड़की,
जो अपने प्रतिभा पर,
मादक-मोद मनाती थी,
वो अब चुप रहने लगी,
अपने मे गुम होने लगी।।
कुछ घर का सोच,
कुछ समाज का सोच,
वो अब चिंतित सी रहने लगी,
फिर!एक नया सबेरा निकला,
वो खुद से बोलने लगी मैं!..।।
मुश्किलें जरुर है, मगर ठहरी नही हूं मैं
मंज़िल से जरा कह दो, अभी पहुंची नही हूं मैं
कदमो को बांध न पाएंगी, मुसीबत कि जंजीरें,
रास्तों से जरा कह दो, अभी भटकी नही हूं मैं।।-
आज सालो पहले लिखा खत हाथो में आ गया
खत की खुश्बू सब कुछ कह गई
खत देख आँखे नम रह गई
लिखा तो सिर्फ हाल चाल ही था
कुछ किस्से कुछ शिकायते
पर घर से अलग रहने का दर्द आखो में उतर आया
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