तुम बिन, जीवन... जैसे धरती होगी, बिना पवन ज्यों सूर्य बिना, ये नील गगन बिन बरखा, सावन पुष्प रहित हो, कोई चमन घर हो कोई, बिन आँगन निष्प्राण-सा कोई तन मृत कोई मन जैसे हृदय कोई, बिन स्पंदन....
शबरी के बेर, सुदामा के चावल, विदुर की भाजी ! क्या इनका कोई मोल हो सकता है ? महत्व इस बात का नहीं है कि हम क्या दे रहे हैं, महत्व इस बात का है कि हम जो दे रहे हैं उसमें अपना हृदय उड़ेल रहे हैं या नहीं।
हृदय में "निष्कामता" के अभाव में वाणी व विचार से 'आध्यात्मिक' उपदेश व प्रवचन करना बिल्कुल वैसा ही है जैसे उपदेश करते वक्त सीताराम सीताराम राधेश्याम राधेश्याम लिखी चादर ओढ़ लेना और फिर...... उपदेश समापन पर उतार देना !!!