ना कोई सबूत ना कोई गवाह...
“कुछ हकीक़त को मैंने माना है बस अफवाह।”-
क्यों रखूं मै बैर किसी से
सब अपने ही तो है,
हकीक़त से क्या है वास्ता
सब सपने ही तो है।-
"एक ख्वाब"
पूरी आत्मीयता से लिखी है🙏
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पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़े-
और कितना गिरेंगे हम???
क्या लिखूं मैं, पर लिख रही हूँ!
इस तरह इंसानियत, हैवानियत कुछ कर रही है,
सोचती हूँ क्यूं मैं भी इंसान जैसी दिख रही हूँ।
क्या लिखूं मैं, पर लिख रही हूँ!
ये दौर तूफानों के आए बहुत हैं,और आते रहेंगे,
मौत अन्तिम सत्य है, ये पाठ बार -बार दोहराते रहेंगे ,
आज ऐसी कौन सी लाचारी आवाम को दिख रही हैं।
क्या लिखूं मैं,पर लिख रही हूँ!
आज जब इंसान का है ,फर्ज कि खुद को बचा ले,
खुद बचे या दूर रहकर, दूरियाँ दिल की मिटा ले।
मौत तो है नियत इक दिन, आना है ,और आ जाएगी ,
प्रश्न यह है ,आएगी तो, किस -किस को ले जाएगी।
सोचती हूँ क्यूं मै भी इंसान जैसी दिख रहीं हूँ।
क्या लिखूं मैं,पर लिख रही हूँ!!!!!!!!-
लफ़्ज दोहराने से जज़्बात नहीं बदलते
और,
ख़्वाबों में जीने से हकीक़त नहीं बदलते।
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ना ग़लत जानता हूं, ना सही जानता हूं..
जिसने जो भी कहा अपने हक़ में, बस मै वहीं जानता हूं।
झूठ केह लो मुझसे, सफ़ाई नहीं मांगता हूं..
हकीक़त पे पर्दा कैसा? हकीक़त जो है मै वहीं जानता हूं।
अपने हक में किसी की, गवाही नहीं मांगता हूं..
अजनबियों के इस शहर में, बस मै खुदा को ही जानता हूं।
ना ग़लत जानता हूं, ना सही जानता हूं..
जिसने जो भी कहा अपने हक़ में, बस मै वहीं जानता हूं।-
कल सुना था मैंने छत पे उसे चांद कहते हुए
आज सुबह देखा उसी चांद पे जुल्म ढहते हुए-
पर अधूरी सी रह गई मंजिलें मेरी
कुछ बदलते बदलते इस ख्वाबों को हकीकत में-