Siddharth Dadhich   (सिद्धार्थ दाधीच "मानस")
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Joined 25 April 2017


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26 MAY 2021 AT 12:28

अधूरा था मुकम्मल कर दिया है
तुम्हारा शहर जंगल कर दिया है

हम उन आंखों में थे रोशन सितारे
उन्हीं आंखों ने ओझल कर दिया है

सवारी चाहते थे हम अनोखी
सो इस चाहत ने पैदल कर दिया है

जिसे पागल कहा करते थे अक्सर
अब उस पागल ने पागल कर दिया है

वो जो उकता गए थे पानियों में
उन्हें सूरज ने बादल कर दिया है

सवाल उसका कठिन तो था बहुत पर,
किसी ला-इल्म ने हल कर दिया है

ना पहुंचे हम तलक कोई मुसाफ़िर
सो हर रस्ते को दल-दल कर दिया है

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27 SEP 2020 AT 12:06

पीछे लिखी हैं शर्तें भी जल्दी में मत करो
पढ़ लो, समझ लो, सोच लो फिर दस्तख़त करो

तुमको सफ़र में लुटने का इतना मलाल क्यों?
ये भी बहुत है जान बची! ख़ैरियत करो

पैसों की नहीं वक़्त की क़ीमत है दोस्तों
बच्चों की देखभाल नहीं तर्बियत करो

इक बार दर जो बंद हुआ खुल ना पाएगा
फिर चाहे गिड़गिड़ाओ, भले माज़रत करो

ऐसे तो इम्तिहान में अव्वल न आओगे
उसके तमाम दावे सिरे से ग़लत करो

कितना बिगड़ गया हूं मैं इस कार-ए-इश्क़ में
फिर से मुझे अता मेरी मासूमियत करो

सोचोगे कब तलक़ भला! जाना है किस तरफ़?
लो आख़िरी बस आ गई! अब देर मत करो

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7 AUG 2020 AT 10:27

कुछ दिन से ज़िंदगी में नया हो नहीं रहा
अफ़सोस! कोई हम से ख़फ़ा हो नहीं रहा

वो चाहता है फ़िल्म का हर सीन देखना
वो इसलिए भी जल्द जुदा हो नहीं रहा

बस बोलता नहीं कोई पर जानता तो है
क्या हो रहा है मुल्क में क्या हो नहीं रहा

दिन रात सींचने में लगा है नया सनम
ये दिल का पेड़ फिर भी हरा हो नहीं रहा

बेहतर यही है जाम नहीं ज़हर दो हमें
अब जाम वाम से तो नशा हो नहीं रहा

वो जानता है बाद का अंज़ाम इसलिए
वो जानबूझ कर के बड़ा हो नहीं रहा

उसने कहा था वक्त भुला देगा इश्क़ को
कहना उसे कि उसका कहा हो नहीं रहा

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7 JUN 2020 AT 23:23

बरसों पुराने रंज मिटे, गुत्थियाँ खुलें
हमपे जो एक शाम तेरी तल्ख़ियाँ खुलें

बैचैनियाँ, घुटन में बदलने से क़ब्ल ही
दीवार-ओ-दर खुलें ना खुलें, खिड़कियाँ खुलें

वो हाथ अपने हाथ में हो या ना हो ख़ुदा
उसकी कलाई से ना कभी चूड़ियाँ खुलें

"हाँ" कहना या "ना" कहना तो आगे की बात है
पहले पहल तो भेजी हुई चिट्ठियाँ खुलें

जंजीरें हमने बर्फ़ की बांधी हैं जिस्म पे
उस धूप का जो लम्स मिले, बेड़ियाँ खुलें

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2 MAY 2020 AT 21:54

हालांकि कुछ ज़ियादा मशक़्क़त से हम बने
लेकिन यही बहुत है कि हम कम से कम बने

भटके नहीं ज़माना हमारी तलाश में
सो छोड़ आए ख़ून के नक़्श-ए-क़दम बने

हर ख़्वाब टूट कर मिला हमको क़दम क़दम
गुज़रे अजीब सानिहे तो चश्म-ए-नम बने

पहले तो राह-ए-इश्क़ थी आसान सी गली
ईजाद जब वो हुस्न हुआ, पेच-ओ-ख़म बने

अपनी अना के वास्ते लड़ते रहे सदा
तब जा के आदमी बड़े खुद्दार हम बने

चलता नहीं फ़कत यहाँ आवाज़ का हुनर
मिल जाए ख़ामुशी से तो बेहतर रिदम बने

बर्बादियों का लुत्फ़ उठाने दे तू हमें
खुशियाँ निचोड़ कर के मेरी जान ग़म बने

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2 MAY 2020 AT 21:14

अहल-ए-जहाँ को तिरी ज़रूरत नहीं रही
तो क्या किसी को तुझसे मुहब्बत नहीं रही?

इक ये कि अब किसी पे भरोसा नहीं रहा
दूजा कि टूटने की भी हालत नहीं रही

किस हाल में हैं छोड़ गए रफ्तगाँ हमें
जब हम मकीन बन गए तो छत नहीं रही

वो ही हुआ! बिगड़ गए हालात इस क़दर
दोनों में फ़ोन करने की हिम्मत नहीं रही

कितनी अजीब बात है लेकिन यक़ीन कर
उसको शराब क्या, तिरी भी लत नहीं रही

वो भी बिना बताए समझता नहीं है अब
अपनी ज़बान में भी वो लुक्नत नहीं रही

अब जा के वाक़ई में मुकम्मल हुआ है इश्क़
इक दूसरे की हमको ज़रूरत नहीं रही

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7 NOV 2019 AT 18:13

रहने लगे हैं बस्तियों में किन घरों के बीच
हम बे-हुनर तो फँस गए जादूगरों के बीच

ख़ुद को संवारते रहे मूरत की आस में
क़िस्मत बदलना चाहते थे पत्थरों के बीच

दरिया की सैर करते तबीयत निखारते
ले कर के कौन अा गया चारागरों के बीच?

पीछे ज़ियादा सामने कम देखते हैं हम
पाले गए हैं हम जो अज़ल से डरों के बीच

नाराज़ कुछ ज़ियादा है शायद वो इस दफ़ा
जो दूरियां बढ़ा रहा है बिस्तरों के बीच

उसके बदन की मिट्टी को जब चाक पे रखा
जन्नत में जंग छिड़ गई कूज़ागरों के बीच

तेरी गली के बाद में हम जाते भी किधर
सो दौड़ने लगे घरों से दफ़्तरों के बीच

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7 NOV 2019 AT 18:08

ख़ानाबदोशी के अभी तेवर नहीं गए
घर से निकल के आ गए दफ़्तर नहीं गए

हम पे बस उसके हिज्र का इतना असर हुआ
छे सात दिन तो हो गए बाहर नहीं गए

दरवेश हैं प' इतना समझ, हैं अना पसंद
भूके रहे मगर कभी दर-दर नहीं गए

वो क़ाफ़िले हमें यहाँ लेकर तो आ गए
अफ़सोस है कि साथ में लेकर नहीं गए

हमसे नई मुहब्बतें तब तक नहीं हुई
जब तक पुराने घाव सभी भर नहीं गए

साहिल पे दिन गुज़ार दिया फिर उसी तरह
दरिया को देखते रहे अंदर नहीं गए

कहियो उसे के ख़ुश रहे रोए नहीं कभी
हम लोग बस जुदा हुए हैं मर नहीं गए

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26 SEP 2019 AT 20:21

हमें डर था बदन की कँपकँपी का
ख़याल आया था वर्ना ख़ुद-कुशी का

मुसाफ़िर लौट जा नक़्शे क़दम को
यही इक रास्ता है वापसी का

मुसलसल शोर दिल में गूंजता है
अजब अंज़ाम निकला ख़ामुशी का

हमें मालूम हैं किन मुश्किलों में
सफ़र उसने किया तय ज़िंदगी का

बयाँ कैसे करें आँखो की हालत
कभी सैलाब देखा है नदी का?

अँधेरी रात में यादें जला कर
निकाला इस्ति'आरा रोशनी का

दिलेरी असलियत में देखनी है?
तो ताला खोल मेरी हथकड़ी का

ये फिर से थम गई मेरी तरह ही
बुरा है वक्त शायद इस घड़ी का

तुझे अय सादा-दिल! मैंने कहा था
बहुत नुक़सान है सादा-दिली का

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3 SEP 2019 AT 20:17

मुसलसल बिन बताएँ कर रही हैं
अभी तक काम माएँ कर रही हैं

ख़ुदा से इल्तिजाएँ कर रही हैं
ये सब भेजी दुआएँ कर रही हैं

चराग़ अब तक वही ज़िंदा बचा है
मदद जिसकी हवाएँ कर रही हैं

जमीं को आसमाँ से अब मिला दो
जमीनें कर्बलाएँ कर रही हैं

मैं ख़ल्वत में बहुत ख़ामोश हूँ और
हवाएँ साएँ-साएँ कर रही हैं

मैं ज़िंदा जंग के मैदान में हूँ
वो आंगन में दुआएँ कर रही हैं

हुनर अव्वल था चारागर में अब के
असर जल्दी दवाएँ कर रही हैं

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