खेल, पलकों को झपकाने की, क्या? खुब, हम भी, खेला करते थे, सबको हराकर, खुद को, सिकन्दर भी, कहा करते थे। सोचा, तुझे भी हरा देगें, इन आंखों के, खेल में, मगर, कमबख्त, पलकें हमारी, झुक गई, तुझे देख के।।
कहते हैं कि दुःख हमें मांजते हैं, लेकिन कुछ सूरतों में दुःख मांज- मांज कर हमारे हृदय की किरचें तक छील देते हैं। हमें ज़िन्दगी से दो- दो हाथ करने जितना मज़बूत बनाने का झांसा देकर हमारे साथ कबड्डी खेलते- खेलते ये कब हमारी हिम्मत की ही रीढ़ तोड़ देते हैं शायद इन्हें भी उनका अंदाज़ा नहीं होता। सब समझाते हैं कि मुस्कुरा कर सब सहते रहो, खुशियों की तरह दुःख भी अधिक दिनों तक नहीं टिकता, लेकिन बाज़ दफा लगता है कि ये मुआं दुःख मुस्कुराहट को ही चुनौती समझ लेता है और तब तक नहीं जाना चाहता जब तक आदमी घुटने पर बैठ रहम की भीख ना मांग ले! सोचती हूं, अगर इंसान दुःख से हार जाये तब क्या किसी सिकन्दर की भांति विजयी दुःख मनुष्य को जीवनदान दे चला जाता है.... किसी नये शिकार की तलाश में? किसी अन्य की मुस्कान पर, इच्छाओं पर, आशाओं पर विजय प्राप्त करने?