सुनों ना...
ग़र मुहब्बत है तो.. ले हाथों में हाथ निकलना पड़ेगा
इस मौज-ए-सागर से साथ में निकलना पड़ेगा,
यूँ दबा के गम सीने में क्या मिलेगा
इस राह-ए-गुज़र में तो आंसुओं को हर हालात में निकलना पड़ेगा,
यार.. दिन में कहाँ मिलते हैं मुफ़्त में ख़्वाब झूठे
जुगनू देखने हैं.. तो फिऱ रात में निकलना पड़ेगा,
बहुत काँटों से भरी है यह शाख-ए-ग़ुलाब
दिल.. अब जख़्म कई लेके हाथ में निकलना पड़ेगा,
ख़्वाब कितनी दूर तक जाएंगे शबनम की बूंदों पे तर के
शायद अब पागलों सा..
..बादलों सा बरसात में निकलना पड़ेगा,
जज़्बात दिखाते हैं आँसुओं को बाहर का रस्ता
उफ़्फ़.. शायद मुझे भी अब जलके धूएँ सा..
..राख में निकलना पड़ेगा,
सुनों ना..!
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