'शायद'
महज़
एक लफ़्ज नहीं.....
'शायद'
नाउम्मीदी की
थाली में बचा
उम्मीद की रोटी का
एक
टुकड़ा है !
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प्रार्थना क्या हैं?
मेहनत के बाद भी शायद किस्मत में जो नहीं लिखीं हुई हों उन हसरतों को पाने का जरिया है प्रार्थना।-
शायद मेरे शब्द ही होते हैं जहरीले
सफ़ेद कागज भी नीले पड़ जाते हैं-
कुछ इच्छाएं, कुछ मनन,
दिल की पुकार,दिल से आती है,
शायद तब कविता बनती है,
कुछ घटनाओं का प्रभाव,
कुछ कमी, कुछ चिंतन
झपकी लेते कर्णधार,
सरकारें जब सोती हैं,
शायद तब कविता होती है,
खुशी हो या गम मिले,
डर सताये या घृणा हो,
शहीदों को देश मिले,
ममता में डूबकर जब मां रोती है,
शायद तब कविता होती है.-
कहीं तो आज भी होगा ना
उसका नाम लिखा...,
वहीं कहीं.. किसी बस की सीट पऱ
या वो... खोदा हुआ किसी पेड़ पऱ,
...स्कूल के किसी बेंच पऱ या फिऱ
वो... वहीं कहीं किसी...
दो-एक रुपए के नोट पऱ,
किसी पन्ने पर...पत्थर पर..
शायद कहीं तो..., आज भी होगा ना
उसका नाम लिखा...!-
लोग कहते हैं,
जो तूने मुझे छोड़ा
तो मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया।
देख पगली,
तू जो साथ देती थी
तो शायद ये लोग
मेरी ऊंचाई नाप भी ना पाते।-
मैं भी देखुं यह मृगतृष्णा
मुझे कब तक छलेगी,
चाहे किसी भी स्वरूप में,
यह मेरी रूह ढलेगी,
पात्र यही रहेगा,
बस कहानी बदलेगी,
यह मुहब्बत अनवरत,
अगले जन्म भी चलेगी,
यह कोहरा घना, छंट जायेगा,
जब तेरे रूप की धूप खिलेगी,
इस संसार के भी उस पार प्रिये
यक़ीनन..,तू मुझे फिऱ कहीं मिलेगी;-
शायद.. उसको याद आया हूँ...
या फिऱ एहसास यह दिल के झूठे हैं,
किसी के तो नयनों से निकले हैं आँसु...
यूँ ही नहीं यह दिल में तूफ़ां उठे हैं,
सोच रहा हूँ.. यह सब सच ही होगा..
कहीं तो.. बिरह के सेतु टूटे हैं,
पहुँच रहीं हैं एहसास की कश्तियाँ साहिल पऱ..
या फिऱ.. फिऱ से किनारे छुटे हैं,
जाने क्यूँ..
आज फिऱ दिल के सहरा का आलम हरा हरा है..
पऱ ख़्वाबों के शज़र तो सारे सूखे हैं,
वो मेरे मन की.. जिस टहनी पे बैठा था..
शायद उसमें अंकुर.. फिऱ से फूटे हैं,
पता नहीं...
शायद.. उसको याद आया हूँ.. या फिऱ...!-