तू मेरा केंद्र
मैं तेरा वृत्त
घूमूँ तेरे इर्द गिर्द
एक निश्चित दूरी बनाये
दूरी बढ़े, बढे प्रेम
दूरी घटे, घटे प्रेम-
मैं एक बिंदु, आप सब के समीप आने से एक बड़े वृत्त में परिवर्तित हो गया। इससे मेरी जिम्मेदारी भी बड़ी हो गई और आप सभी में समय बँट गया। समय न दे पाने की शिकायत सभी करने लगे और मैं अपने को दोषमुक्त कर नहीं पाया। आप सभी से क्षमा याचना करता हूँ। आप सभी से स्नेह लेता रहा परन्तु दे नहीं पाया। मैं जो हूँ बस इन्हीं शब्दों में हूँ। आप अपने हिस्से का स्नेह इन्हीं शब्दों में पा जायेंगे यही मेरा प्रयास रहेगा।
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तुम केंद्र बिंदु मेरे जीवन के ⭕
तेरे प्रेम की त्रिज्या ही
मेरी भावनाओं की है सीमा ⭕
स्पर्श रेखा बन तुमने
जीवन परिधि के जिस बिंदु पर स्पर्श किया⭕
उस बिंदु पर मैंने
सम्पूर्ण जीवन को जी ही लिया⭕
प्रेम त्रिज्या की अभिवृद्धि होती गई
क्षेत्रफल प्रीत आयामों का बढ़ता गया⭕
📈📈📈📈📈📈📈📈📈📈
क्रूर वक्त ने अनायास खींची तिर्यक रेखा
विभाजित हो गया वो जीवन अपना
स्पर्श रेखा का वो छोटा सा बिंदु
त्रिआयामी ऊर्जा पुंज सा चलता रहा
प्रेम वृत अनंत तक अनवरत बढ़ता रहा.....
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तुम मेरे जीवन के वृत्त की परिधि से बाहर हो
मगर आज भी केंद्र हो तुम-
प्रेम वह केंद्र है
जिसके चारों ओर
बना दिये गये हैं
असंख्य वृत्त।
हर एक क्षण
कई प्रेमी
आँक रहे हैं
कई वृत्त।
जितना बड़ा होता है उनका व्यास
उतनी बड़ी होती है उनकी परिधि।
ये प्रक्रिया
चली आ रही है निरंतर,
कई प्रकाश वर्षों से
या शायद
उससे भी पूर्व
जब जन्म न हुआ हो प्रकाश का।
शायद काल गणना में
कहा जाता रहा हो उसे
अंधकार वर्ष।-
प्रेम के 'वृत्त' का 'केंद्र बिंदु' होता है विश्वास
'त्रिज्या', 'त्रिज्या' मिलकर बनाती हैं 'व्यास'
जिसको समझ नहीं इस 'ज्यामिति' की
उनके लिए 'परिधि' भी नहीं होती खास।-
मैंने एक वृत्त बनाया
छोटा लगा
दूसरा बनाया
छोटा लगा
लक्ष्य बिंदु के चारों ओर बनाएं
सभी वृत्त
छोटे लगे
अब मैंने वृत्त बनाने छोड़ दिए हैं
लक्ष्य बिंदु तक पहुंचने के लिए
चारों ओर से अनगिनत रेखाए
खींचनी शुरू कर दी हैं-
मेरे मन की गहराईयों में
शांत पड़े मन के ताल में
तेरी यादों के कंकड़ से
वृत्तों आवृत्तों में स्मृतियां
तरंगों की तरह उभर आती हैं
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भुजंगप्रयात वृत्त
122 122 122 122
जसे पान झाडावरीचे सुकावे
तसे एक नाते जुने होत जाते
न वाटे कुणा शोक त्या पल्लवाचा
कुणी वाचवाया न नात्यास जाते
जसे शुष्क पानातले त्राण जाते
जरा काळ जाता गळूनी पडे ते
अवस्था तशी जीर्ण नात्यात होते
जिव्हाळ्या विना क्षीण ते होत जाते
किती सोसवावे ॠतू, ऊन, वारा
असे वादळांनाच आरोप सारा
विसंवाद, तंटा, अबोला, दुरावा
असा संपवी बंधनाचा पसारा
© निलम-
कृष्ण तुम केंद्र हो
मेरे जीवन वृत की......
मेरी स्मृति की परिधि
अनवरत परिभ्रमण
करती रहती है
जिसके अभ्यन्तर।
मेरे हृदय की त्रिज्या
तुमसे गुज़रकर
व्यास बन जाती है.....
तब विश्व जीवा बनकर
मेरी परिधि में होकर भी
मुझमें नहीं होता।-