जाने कितनी बातें थी
बातें थी या
धरा पर जल का होना?
एक बड़ा-सा आँगन था
उसमें मिट्टी का चूल्हा
जाने कितना कुछ पकता था
भोजन था या प्रेम?
आम का एक पेड़ था
पत्ते हवा में सुगन्ध लिखते थे
जाने कितने किस्से होते थे उसके नीचे
किस्से थे या अपनापन?
एक गौरैया आती थी
पूरा आँगन घूम जाती थी
गौरैया थी या बीता हुआ वक़्त?
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मेरी गौरैया प्यारी, आती थी मुझसे मिलने,
सुबह की पहली किरण से भी पहले जाग जाती थी,
और साँझ तक अमरुद के पेड़ पर चीं-चीं-चीं- करती रहती थी।
झगड़ा भी करती थी मुझसे, मैं जब भी उसे पकड़ना चाहती थी।
...फिर, एक दिन मैंने उसे पकड़ ही लिया अपने broadband के जाल से,
पर अब वो मुझसे झगड़ा नहीं करती,
बस चुप -चाप बैठी रहती हैं मेरी window-10 के wallpaper पर।
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भीड़ भाड़ तो है बहुत, पर मेरा घर है कहाँ
ऊँची ऊँची इमारतों वाला नहीं ये मेरा जहां
देर तक बैठी थी मैं कल भी उसी मुंडेर पर
कल की बात तो हो ली आज मेरा है कहाँ
चीं चीं की आवाज जो शोर में थी दब गई
आज प्यार फ़िर उमड़ा है पर दबा है कहाँ
झूठ और फरेब तो हैं तुम्हारे रोज के काम
जान पर हमारी है बनी बता दो जाएँ कहाँ
भूख प्यास पैसे की, जरूरत यंत्र तंत्रों की
प्यार बेजानों से करे, शख्स मिलेगा कहाँ
मैं ही ना दिखी मेरे आँसू कहाँ तुम देखोगे
के जिसमें जिक्र मेरा हो बात होती है कहाँ
छोड़ो शिकायतें, तुम भी बहरे हो 'बवाल'
गुहार हमारी सुनी जाये, अदालतें हैं कहाँ-
विश्व गौरैया दिवस
सुने पड़े हैं घरों के आंगन,मुंडेर और रोशनदान,
गौरैया की चहचहाहट सुनने को तरस रहे हैं कान।-
आज हमारी
बालकनी में
एक गौरैया आई
मधुर स्वर में
गीत सुनाकर
इधर उधर इठलाई
झटके से जो
द्वार खुला तो
तनिक नहीं घबराई
फुदक फुदक फिर
दाना चुगकर
उसने दौड़ लगाई
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यादों के पेड़
नहीं ठूँठ कह लो
आज फ़िर महक रहे हैं
कुछ पल को ही सही
लिखेंगे मंत्र नए
फ़िर से सौगंध में
बचा ही लेंगे
ठूँठ को जलने से पहले
जड़ें क्या होती हैं
ख़ुद पत्तियों ने ही गला दी
छाँव तो अब भी है
वो लगाव नहीं रहा
ख़याल पैदा कैसे होगा
कोख तो बाँझ है
वो फुसफुसाहट, चहचहाहट
बरसों पुरानी किताबों में लिखी
कल ही की तो बात है
वो मेरे घर का बरामदा
अब कहाँ आबाद है-
काट दिए थे कानन सारे
नहीं दिखते हैं आँगन द्वारे
मौन हो गई नन्ही गौरेया
सूने हुए सब साँझ सकारे
पेड़ काटकर भवन बनाये
तिनके-तिनके थे बिखराये
उजड़े ठूँठ पर बैठी गौरेया
उदास मन को कहाँ धराये
बचपन की वो मेरी सहेली
फुदक -फुदक नाचे नवेली
फिर से आजा प्यारी गौरेया
बुला रही दानों भरी हथेली
मन की मुंडेर सूनी हो गई
मीठी कलोल कहीं खो गई
भोर की किरणें नन्ही गौरेया
तेरी चंचल स्मृतियाँ बो गई-
मिलती नही अब गोरैया रानी,
पहले दिखती थी हर भोर में,
पर हम सब लगे हैं बस,
घर सजाने की होड़ में,
घरों में पेड़-पौधों का,
मिलता नाम-ओ-निशान नही,
क्या करे गोरैया बेचारी,
बैठी है परेशान कहीं,
ढुंढे अपना घर कहाँ वो,
इमारतों के बाज़ारों में,
मिलते है अब घोंसले भी,
दीवारों की दरारों में,
इंसानों की भीड़ में,
वो मासूम कहीं ना खो जाये,
अभी बचा लो उसको कहीं वो,
विलुप्त ही ना हो जाये।-
भीड़ भाड़ तो है बहुत पर मेरा घर है कहाँ
ऊँची ऊँची इमारतों वाला नहीं ये मेरा जहां
देर तक बैठी थी मैं कल भी उसी मुंडेर पर
कल की बात तो हो चली आज मेरा है कहाँ
चीं चीं की आवाज जो शोर में कहीं दब गई
आज प्यार फ़िर उमड़ा है पर ये दबा है कहाँ
झूठ और फरेब तो तुम्हारा रोज का काम है
जान पर हमारी आ बना, बता दो जाएँ कहाँ
भूख प्यास सब पैसे की, जरूरत यंत्र तंत्रों की
प्यार हम बेजान से करे ये शख्स मिलेगा कहाँ
विलुप्तता के कगार पर आज हम भी हैं खड़ी
कृत्रिमता भरी महफ़िल में कौन पूछेगा यहाँ
मैं ही ना दिखी मेरे आँसू अब कहाँ तुम देखोगे
जिसमें जिक्र मेरा हो बात वो होती है कहाँ
क्या करूँ शिकायत और किससे कहूँ 'प्रवीण'
गुहार हमारी जो सुन सके, अदालत वो है कहाँ-