ज़िंदगी... कैसी है पहेली हाय!!
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मैंने देखें हैं अक्सर
तुम्हारे गालों पर उभरते वो निशाँ
जो तुम्हारी आँखों में
रूके हुए अश्रुओं की दास्ताँ कहते हैं
जिनको बहने की मनाही है-
जल्दबाज़ी रही सभी को जीने की
तो तथाकथित सिखाये गए तौर-तरीकों को
कर लिया कंठस्थ हमनें
इतना कि लहू में घुल गए हमारे
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आग नहीं, जलते अंगार को देखिये
फिर इस ग़ज़ल के मेयार को देखिये
है रूह सबसे बेचैन चीज़ दुनिया की
तो दिल्लगी को नहीं, प्यार को देखिये
फूल की क्या बिसात, काँटा भी तड़फे
ज़रा बेरूखी से अगर खार को देखिये
तलवार से भी तीखी है शब्दों की मार
धार को नहीं बस उस वार को देखिये
कभी बस हाथ थामिए, पास बैठिये
कभी-कभी यार के ख़ुमार को देखिये
रोशनी कुछ नहीं अँधेरे के वजूद बिना
जब देखिये अपने अँधियार को देखिये-
दरख़्त होना आसाँ न रहा
किसी भी शख़्स के लिए
वर्ना कौन चाहता है
सख्ती का कवच ओढ़े रहना
बड़े नेह से पाले गए पत्तों को
वक्त बेवक्त दूर जाने देना
बस बढ़ते रहना प्रतिकूल परिस्थिति में भी
धूप धूल बारिश बिजली
बचाये रखना छाह को अपनी
दिन भर की मुस्कान का बोझ उठाए
रातों में चुपचाप रोना
अपनी छाहों को भनक तक न लगने देना
क्या गुजरी रात गयी रात उनपर-
चुप रहते-रहते एक अरसा बीत गया
कुछ नहीं था मुझमें फिर भी रीत गया
मैं उँगलियों से हथेलियां कुरेदता रहा
लकीरों में लिखा क्यों बन अतीत गया
सपनों को अब कल पर टाल देता हूँ
सपना जो ज़िंदगी का रह मजीत गया
एक ही तो ऐब था उसे यूँ चाहने का
और वो मुझसे छूटकर हो पुनीत गया
उसके जाने के ग़म में हारा हुआ हूँ
उसकी याद कहती है रे तू जीत गया-
चलो! मोहब्बत का भरम रहने देते हैं
ऊपर वाले का यह करम रहने देते हैं
आँखों से होकर दिल तक पहुँचा है ये
फ़िलहाल ये एहसास मरम रहने देते हैं
गरीबी बहुत बढ़ती जा रही है देश में
इसी मौज़ू' को बस गरम रहने देते हैं
ज़िंदगी का बसर भी होकर ही रहेगा
तो मन को फिर क्यों नरम रहने देते हैं
ख़ुश हैं तुम्हें देखकर हँसता हुआ यूँ
इसे, इस इश्क़ का चरम रहने देते हैं
इन अक्षरों में मूरत देखी है तुम्हारी
इन्हें ही अपना दैरो हरम रहने देते हैं-
बात कोई समझे नहीं तो कहने से क्या होगा
माज़ी से अपने ही भागते रहने से क्या होगा
काँच समझकर तोड़ देंगे तोड़ने वाले तो इसे
दिल को पत्थर होने दो सहेजने से क्या होगा
अर्थ सारे अनर्थ करके रख लिये हैं सभी ने
काग़ज़ों पर अक्षरों को उकेरने से क्या होगा
ज़िंदगी की कहानियों से क़िताब बननी नहीं
तो बिखरे हुए पन्नों को समेटने से क्या होगा
ख़िताब है इस ज़िंदगी का बिखरा हुआ मन
रोज़-रोज़ फिर मन को कोसने से क्या होगा
हो रहा है वो सही है, होगा जो होगा सही ही
ग़लत कौन और क्यों तय करने से क्या होगा-