समरेश "सौम्य"  
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शायद कभी किसी मोड़ पर...
किसी से मुलाकात हो जाये....
Joined 28 March 2019


शायद कभी किसी मोड़ पर...
किसी से मुलाकात हो जाये....
Joined 28 March 2019

मुक्त होना था
सारी दुविधाओं से
“मैं ” आड़े आया

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बनकर कुहक तुमने
शब्दों का मायाजाल फैलाया है
दिल खो जाने को आतुर है
इश्क़ का ऐसा पाठ पढ़ाया है

**कुहक- जादूगर

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मुख़्तसर सी ज़िन्दगी में
ताम-झाम तमाम
ख्वाहिशों को देते हैं
आओ थोड़ा विराम

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मुझे यूँ निहारा ना करो
कमज़ोर दिल है मेरा
मुझसे यूँ किनारा ना करो

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कटते कटते कट ही गए, हम अपनी ज़मीन से
जैसे कर बैठे कुछ बड़े अपराध, बहुत संगीन से
किस-किस को याद करें, और किस-किस को भूलें
लगाते लगाते हिसाब, हम भी बन गए एक मशीन से

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अच्छे बुरे का भेद
हमसे कभी हुआ नहीं
हम सब उसी की मूरत हैं
इससे इतर कुछ दिखा नहीं

लेकिन अब इस दौर में
लगता है, ग़लत हैं हम
अब खींचनी ही पड़ेगी रेखा
कि क्या अच्छा है क्या बुरा

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दो लेखक जब पड़ जाते हैं
इक दूजे के प्रेम में
चलने लगती है लेखनी उनकी
इक जैसे ही फ्रेम में

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की
कोई नहीं मिसाल
तोड़ कर गर्व चट्टानों का
ख़ुशहाली की राहें दी निकाल

# प्रिय दशरथ माँझी को सादर समर्पित

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टूटकर बिखरना नहीं जानती
लड़खड़ा जाती है मगर
संभलती है, फिर गिरना नहीं जानती
आयेंगी लाखों चिंगारियाँ
रहगुज़र में हर तरफ़
उनके ताप से भस्म होकर
ये लेकिन, जलना भी नहीं जानती

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हृदय व्यथित है
जैसे ढूँढ रहा हो कोई
मृग-मरीचिका

पता है,
व्यर्थ है ये सारा कुछ
कोई अस्तित्व नहीं इसका
इसके तले कोई जमीन नहीं

फिर भी,
खो जाना चाहता है इसमें
कुछ पल को
भूलकर सबकुछ

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