बेटी की विदाई में बहते आँसू..
बिछोह के या खुशी के,
ये समझ नहीं आता..
बस नीर बहा जाता है स्वतः ही नैनों से
अनियंत्रित ,
और उस माँ की विडंबना देखो
जो मन भर आँसू भी नहीं बहा पाती,
क्योंकि समेटना है उसको
शादी के फैले कामों का पुलिंदा..
कई अतिथि भी हैं विदा होने को
उनके उपहार , मिठाई के डब्बे
और कृत्रिम मुस्कान चेहरे पर..
हाँ ,
पिता अवश्य सारी सामाजिकता व्यावहारिकता से दूर
खुद को किसी कोने में समेटे है..
बिटिया भी कुछ पल में ही
रखेगी कदम नए घर में,
करने शुरुआत नए जीवन की,
बचपन की चुटकी भर यादों को भीगे रुमाल में समेटे,
वहाँ, जहाँ नया परिवार पलकें बिछाये है
उसके इंतज़ार में,
सब व्यस्त हैं अब मंगल कार्य के अंतिम चरण में,
दरवाज़े से दिखता टूटा श्रीफल सामने सड़क पर
मानो समेटे सारी संवेदनाएँ खुद में ।-
ऐसी भी 'विदाई' होती है
न कैद 'रिहाई' होती है
सपने प्रियतम के आँखो में
सांसो की 'सिलाई' होती है
नैनां ये अश्क़ विरह बरसे
कैसी ये 'जुदाई' होती है
कल तक जो थी दुनिया अपनी
किस हक़ वो 'पराई' होती है
आँशु से भीग रहा दामन
कैसी ये 'बधाई' होती है-
"बेटी विदाई और पिता का दर्द"
गूँज रही शहनाई मन में, दिल सहम-सा गया है,
बेटी होने जा रही विदा, पिता का दिल बैठ रहा है।
जिसको पाला नाजों से, उसका संग अब छूट रहा है,
न रहे कमी कोई विवाह में उसके, वह नंगे पैर दौड़ रहा है।
एक पल का चैन न उसको, न ठहर वो क्षण भर रहा है,
मुस्कान रखे होंठो पर अपने, हितों का स्वागत कर रहा है।
दिख न जाये आँसू उसके, वह घुट-घुटकर आंसू पी रहा है,
उसकी माता के वो अश्रु देख वह, ख़ुद में खुद से टूट रहा है।
व्याकुल मन भटक रहा उसका, बेटी की तरफ देख रहा है,
कैसा होगा "ससुराल" उसका?, ये सोच के दिल उसका सहम रहा है।
जिसकी हँसी से घर हर कोना गूंजता, अब वह सन्नाटों में बदल रहा है,
"क्यों" रीति बनाई "बेटी विदा" की, "पिता" ये हर पल "रब" से पूछ रहा है।
"कौन" अब "पापा" की रट लगाएगा?, ये सोचकर वह बिखर रहा है,
गूँज रही "शहनाई" घर में, उसके दिल का घर टूट रहा है।-
चेहरे की चमक देखी सबने
दिल का दर्द पूछेगा कौन
मां की गोद में पली-बढ़ी
पिता के लिए सबसे लडी
अब..किसी और के घर चली
-
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
( धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है )-
होएहु संतत पियहि पिआरी।
चिरु अहिवात असीस हमारी॥
( तुम सदा अपने पति की प्यारी होओ,
तुम्हारा सुहाग अचल हो;
हमारी यही आशीष है )-
हर बार की तरह, इस बार भी
पिता जी की खामोशियों ने तो
माँ के आंसुओं विदाई दी...-
मेरा हाथ थाम कर
छोड़ने आया था वो मुझे
घर की उस दहलीज तक
जहां बचपन से जवानी का हर रंग देखा था।
उस घर से कभी जाना तो नहीं चाहा था।
लेकिन एक बाप बस बेटी की विदाई का फ़र्ज़ निभा रहा था।
और दहलीज पर चुप चाप मौन खड़ा आंसू बहा रहा था।
उसकी गोद में आज भी खुद को मैं महफूज़ पाती हूं।
बाबा आज भी मैं तेरी गुड़िया कहलाती हूं।-
कल किसी की बेटी लाया था
आज तेरी बेटी की विदाई है
फिर क्यों तू आंसू बहाता है
ये रीत तूने ही तो चलाई है।-
" बेटी की विदाई"
पापा की लाडली बेटी जो आज कैसे पराई है
मां का दिल टुकड़ा और भाई की वो परछाई है
बाप ने जिसे संजोए रखा किसी सुन्दर फूल की तरह
आज बगिया उजड़ रही ज़माने ये कैसी रित बनाई है
छोटी छोटी ज़िद पूरी होती थी उसकी जिस अंगना में
उसी अंगना से बाबुल की चिङिया की हो रही रिहाई है
जिसको कभी पाला नाजो से उसका संग अब छूट रहा
कठोर दिल का बाप रो पड़ा ये कैसी बेटी की विदाई है-