ये हम कुछ लोग हैं बाशिंदे हैं अंधेरों के
हमें रोशनी की आहट भी सरासर ख़ौफ देती है-
तुम्हारे जिस "हिस्से" को मैं लिख नहीं पाती,
लोग उसे तसल्ली से मुझमें पढ़ते हैं।-
खत तो बहुत लिखे उसके नाम पर
मगर कमबख्त उसका पता ही नहीं
था हमारे पास-
"बहुत चोट करते हैं.. आजकल फ़ूल पत्थरों पे
तूने अगर फैंके हैं तो.. मुझे हैं यह ज़ख्म क़बूल पत्थरों के,
बहुत प्यारे हैं मुझे यह गम के ख़ज़ाने मुहब्बत के
रखता हूँ संभाल-संभाल के.. हटाकर धूल पत्थरों से,
अज़नबी सी रहती हैं शहर में दीवारें सट के दीवारों से
अफ़सोस.. हमारे भी हो गए.. कुछ हूबहू उसूल पत्थरों से,
बनकर मंदिर-मस्जिदें.. ना जाने क्यूँ टूटा करें
उफ़्फ़.. बेवज़ह बनकर ख़ुदा.. बहुत हो गई भूल पत्थरों से..!"
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कुछ लोग इस तरह जीने का सलीका सिखाते है,
औकात में रहूं इसीलिए औकात दिखाते है।-
देश की सबसे बड़ी समस्या ये हैं की
यहां देश की समस्या को लोग
देश की समस्या समझते हैं, अपनी नहीं।-
लोग कहते हैं,
जो तूने मुझे छोड़ा
तो मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया।
देख पगली,
तू जो साथ देती थी
तो शायद ये लोग
मेरी ऊंचाई नाप भी ना पाते।-
हर होंठ में मीठा ज़हर है
....विषैले जैसे लोग हैं
धुले हूए कपड़ों के अंदर
मैले जैसे लोग हैं....
छोड़ दिल शहर यह उम्मीदों का...
ना वो रहा है अब पहले जैसा
ना अब वो पहले जैसे लोग हैं...!!-