""" कोई बात बने """
चाहतें मुकम्मल जो हो जाएं तो कोई बात बने ,
राहतें दिल को जो मिल जाएं तो कोई बात बने |✴
हर तरफ लूट है गमों की जमाने में मालिक ,
इश्रतें आदिल को जो मिल जाएं तो कोई बात बने |✴
भटक रहें हैं कुछ बदनसीब दर-बदर होकर ,
रहमतें काबिल को जो मिल जाएं तो कोई बात बने|✴
मिल रहें हैं नए दर्द रोज हर आँख को लेकिन ,
मुस्कराहटें हासिल जो हो जाएं तो कोई बात बने |✴
बंदगी में झुके हैं तेरे सर सुनले ऐ खुदा ,
इबादतें कुबुल जो हो जाएं तो कोई बात बने |✴
........निशि ..🍁🍁-
एक दिन सुबह
मैं घर से निकली
ईश्वर को पेट भर कोसते
हे!! ईश्वर
अनजाने में हुए मेरे कुकर्मों का
पूरा प्रतिशोध लिया है तुमने।
मेरे अच्छे कर्मों को क्यों नहीं देखते
अन्यायी हो तुम!!
नहीं रहा तुम पर विश्वास मुझे
बुरी तरह थक चुकी हूं मैं,
तुम्हारे नाम के मनके फेरते- फेरते
:
शाम को मैं घर वापस लौटी
कुछ थकी थी, थी कुछ टूटी
अब मुझे ईश्वर की आवश्यकता थी।
मुझे जी भर झल्लाना था,
सुबह ही रूठी थी, सो चुप थी
अब रात बीत रही थी...
दूर - दूर से ईश्वर को घूरते-
इश्क अपना तेरी नस नस मे
भर दूँ
वश चले मेरा तो ये जहान तेरे
नाम कर दूँ।
-Bibhu bibhu
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कट रही है ज़िंदगी यूं ही इस क़दर।
खामोशी से देख रही मुझको हर एक नज़र।।
भीड़ में ख़ुद को तन्हा महसूस कर रहा हूं।
मर नहीं सकता इसलिए जिए जा रहा हूं।।
थक गया हूं अपनी इस बेरंग ज़िंदगी से।
गमों में लिपटी हुई हर एक खुशी से।।
चाह है ज़िंदगी में किसी की चाहत मिले।
तब जाके इस दिल को थोड़ी राहत मिले।।
चाहत मिल जाए तो ये दिल संभल जाए।
सफ़र में कहीं कोई हमसफ़र मिल जाए।।
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भर पेट रोटी से बढ़ कर ,कभी राहतें भी ज्यादा नही थी,,
नाम कमाने की हमें, कभी सोचें भी ज्यादा नही थी,,
क्यों भागते है दर ब दर,गुमनाम हसरतों की ख़ातिर,,
दुनिया की तरह अपनी तो ज़रूरतें भी ज्यादा नही थी,,-
शिखर पे पहुंचना अगर चाहते हैं,
तो इतने भी आसां कहाँ रास्ते हैं.!
कड़ी धूप में ये तो लंबा सफर है,
उदासी की तह में छिपी राहतें हैं.!
सिद्धार्थ मिश्र-
चाहतों के किले पल में ढह गए
ख्वाहिशों के समंदर रेत में बह गए
रास्ते मिट गए, मंज़िलें खो गयी
राह में फ़ासले, बस फ़ासले रह गए-
चाहतें हैं कहीं
राहतें हैं कहीं
तो कहीं हैं...
फ़ासले..
फ़ासले..
बस फ़ासले...
सिर्फ फ़ासले...
सिर्फ...फ़ासले...
.....फ़ासले-
जीना सिखाती रोशनी तो दिये जलते भला क्यों
एक सूरज के ढल जाने से दिन ढ़लते भला क्यों
क्या ताल्लुक़ है अँधेरों का यहाँ रात से आखिर
गर कालिख़ है तो हसीं सपने पलते भला क्यों
चाहतों का जादू है दिल पत्थर होकर पिघले हैं
पत्थर ही वो रहते, मोम -से पिघलते भला क्यों
रास्तों से वास्ता है शायद इतनी ही ज़िंदगी रही
हम मंजिलों के पाले होते तो चलते भला क्यों
कोई आशना कहकशां से कोई शून्य के सुकूँ में
सबके अपने दायरे हैं परंतु ये खलते भला क्यों
देख हरारत हसरतों की जी तो रहा है 'बवाल'
पर सोचता है मन हमारे ये मचलते भला क्यों-
और तेरी यादें बेतहाशा
फुरसत भला, फिर कहां से हो
ख्वाहिश़ यही की,संग रहे तू मुस्लसल
राब्ते यादों से ही,फिर राहतें कहां से हों।-