'होली उत्सव'
होली आयी रे कन्हाई
रंग छलके सुना दे ज़रा बाँसुरी
छुटे ना रंग ऐसी रंग दे चुनरिया
धोबनिया धोये चाहे सारी उमरिया
मोहे भाये ना हरजाई
रंग हलके सुना दे ज़रा बाँसुरी-
मेरे हिस्से के, बचे रंग को, चल.........!
तेरे हिस्से के, बचे रंग से, मिलाते हैं।
जो नई रंग, बन जाए, क्यों ? न........,
उन से, एक हसीन, तस्वीर बनाते हैं।।-
क़भी तो आ कर खेले वो होली हमारे साथ काशाना में,
तो उन्हें मालूम पड़े रंग ख़िलते कैसे हैं चेहरे पर उनके साथ!-
मेरे नाम की मेहंदी लगाए बैठी है,
लगता है मुझसे इश्क़ लड़ाए बैठी है...
मेरी निशानी माथे पर सजाए बैठी है,
लगता है मुझसे प्यार जताए बैठी है...
मेरे बंधन को गले मे बांधे बैठी है,
लगता है मुझसे दिल हारे बैठी है...
मेरी बलाएँ आंखों में धर बैठी है,
लगता है मुझसे मोहब्बत कर बैठी है...
मेरे रंग में लाल रंग ओढ़े बैठी है,
लगता है मुझसे उल्फ़त जोड़े बैठी है...-
रंग"
रंगों को भी रंग होने पर शर्मिंदगी महसूस हुआ,
जब देखा आदमी को पल में कई रंग बदलता हुआ।-
शक्ले बहुत सी हैं
हर शक्ल पर परेशानी है
मिलु तो किस रंग में मिलु
हर रंग की बात नई हैं-
dal kar ek nazar,wo chand ko bhi hasheen kar gaya
are wo to parde me bhi mehfil naajneen kar gaya-
वो सब समेट लेती है खुद में,
गम के, खुशी के, शिकायत के,
रंग सारे समाते हैं उसमें;
लोगों की तरह रंग नहीं बदलती,
एक सी ही रहती है-
स्याह काली।
और फिर भी लोग पूछते हैं-
ऐसा क्या खास है उसमें?
मोहब्बत क्यूँ है एक काली कमीज़ से?-