यात्रा
गंगोत्री से गंगासागर
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अपनी यात्रा का वृतांत सुनाती हूँ
अविरल,अविराम चलती जाती हूँ,
कहीं जन्मती ,कहीं जा समाती
मोक्षदायिनी गंगा कहलाती हूँ ।
पूर्वज भागीरथ के, भस्म शाप से
तपस्या से लाये,मुक्त कराने पाप से ,
शंकर की जटाओं से उतरी धरा पर
गंगोत्री हिमनद से चली मैदानों पर ।
पूरी कविता कैप्शन में
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मेरा प्रेम अधूरा कहाँ है प्रिय
वो तो उसी दिन ही पूर्ण हो गया था...
...जब तुमनें भी मेरे प्रति प्रेम स्वीकार किया था,
तुम्हें खोकर हर शय में तुम्हें पाना... अब तुम्हीं बताओ... तुम्हें पाके मैं
तुम्हारे कितने ही खूबसूरत स्वरूपों से दूरस्थ रह जाता,
यह चाँद यह तारे.. यह पंछी.. हवा ...
यह हवा में लहराती टहनियां.. यह पानी.. बादल.. आकाश...
यह रात की स्याह ख़ामोशी... उफ़्फ़,
तुम्हें ना पाके जाना... के तुम्हारे एहसासों का विस्तार कितना बड़ा है,
शुक्रिया प्रिय तुम्हारा... मुझे इस बात से रूबरू करवाने के लिए के..
यह जीवन एक सीमित सा सफ़र है
औऱ प्रेम आत्मविस्मृत की एक असीमित सी यात्रा...
यात्रा.. मीलों की.. सदियों की... जन्मों की,
तुम विश्राम करो प्रिय.. इस यात्रा पे अनंत तक मुझे अकेले ही चलना है..,
मुझे ज्ञात हो गया है... के परमात्मा की सिर्फ़ उपासना हो सकती है...
...उसे पाना अति दुष्कर है!!-
बहुत चाहने पर भी
जब मैं कुछ भी नहीं लिख पाती हूँ
तो मैं स्वयं को
किसी बीहड़ में
निरूद्देश्य भटकती हुई पाती हूँ
कंटीली झाड़ियाँ
पथरीला रास्ता
तिस पर मेरी उद्विग्नता की यात्रा
मैं स्वयं से
स्वयं को
दूर होती हुई पाती हूँ-
किताबें 📚📚 यात्रा हैं,,भुत ☝ से भविष्य ✌ की.......
Trying to understand this line of mine will give a very deep meaning..
Thank you-
हिन्दी में यात्रा संस्मरण तो बहुत हैं. उनमें से श्रेष्ठ दस कृतियां चुनना बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैंने अपने विवेक से जो रचनाएं चुनीं, वे इस प्रकार हैं :
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ठहराव, यात्रा और जड़ों की तलाश
(यात्रा वृत्तांत)
Part I
पढ़िए अनुशीर्षक में....-
...पर हमारे देश में तो 'अच्छी' लड़कियाँ 'एसेक्सयूअल' होती हैं, उन्हें न किसी के साथ हमबिस्तर होने का मन करता है; न किसी का हाथ पकड़ने का, न वे किसी के होंठ चूमना चाहती हैं, ना किसी की बाँहों में खो जाना चाहती हैं ना ही उनके पेट में तितलियाँ उड़ती हैं और उड़ती भी हैं तो पहले कुल-गोत्र, अच्छी नौकरी, यहाँ तक कि घर-परिवार जैसी चीज़ें देखकर ही पंख खोलती हैं!
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तुम्हारे प्रेम के उद्वेग में
मैं कभी मेघ, फिर बारिश... नदी फिर सागर तक प्रगाड़ बना,
और कभी यूँ हुआ के ओस की एक सूक्ष्म बूँद तक भी जीवित रह कर देखा,
रात तारों के प्रकाश में जुगुनुओं की उड़ान मापी
भागते चाँद का पीछा किया... स्वपनों की वाट जोही,
फ़ूल पत्ते जंगल मरुस्थल हर जगह तुम्हारी सम्भावना ढूंढी...
फिर अंततः जब तुम ना मिली तो यह संज्ञान हुआ के तुम निरुप हो,
तुम्हारी कोई देह नहीं है, कहीं किसी वस्तु व्यक्ति में तुम होती
तो इतना भी अयोग्य नहीं था मैं के तुम्हें प्राप्त नहीं कर पता...
तुम्हारा प्रेम तो सारी प्रकृति में समाविष्ट था
और मैं मंद किसी एक में तुम्हारी आकृति तलाशता रहा,
जीवन की प्रवृत्तियों से निवृति का मार्ग तुम्हारे प्रेम ने ही प्रसस्त किया
शुक्रिया प्रिय,
गुमराह तो वो हैँ जो इस प्रेम के भास से बंचित रहे
मैं तो अपने गंतव्य पे हूँ....
मेरी यात्रा केवल ईश्वर के निवास स्थान तक थी!!-