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प्रेम में
कल्पनाओं के पर निकल आते हैं
प्रेम में
यथार्थ खो देता है अपना अस्तित्व
प्रेम में
हृदय हो जाता है जब तार तार
प्रेम में
निखर जाता है व्यक्ति का व्यक्तित्व-
कविताओं का एक पेड़ था...
हरा-भरा कुछ वास्तविक कुछ कल्पनाओं से भरा,
....जब वो अपने तारुण्य के शिखर पर था तो
अनेक खूबसूरत पंछी रोज़ उसकी पंक्तियों की टहनीयों पे बैठ चहकते...
नादां... कुछ इक्का-दुक्का परिंदों से उड़ने की आस कर बैठा,
अब सदाबहार कौन रहा है यहाँ... हुआ ह्र्दय बंजर... मन की ऋतुएं बदलीं... बने पन्ने मरुस्थल... क़लम स्याह रहित.... अब उड़ जा रे कागा पतझड़ आयी,
कहीं पड़ा था... पहले कोई आदिवासी प्रजाति थी, बो पेड़ो को काटते नहीं थे...
उसे अकेला छोड़ देते थे... क़भी क़भी आके उस पेड़ को घेर कर कुत्सित भाषा का
प्रयोग करते... औऱ कुछ दिनों बाद वो पेड़ धीरे-धीरे अपने आप ही सुख जाता...,
शायद यही जीवन का सत्य है...
लोग नदी को देखकर नहीं... उसके प्रवाह को देख ख़ुश होते हैं...
शायद... साग़र तभी एकांत में बनते हैं!!-
शून्य!
"कुछ नहीं" होता है
शून्य!
"में" सब कुछ होता है और
शून्य!
"से" सब कुछ होता है।-
यदि हमारी इस प्रेम कहानी में
तुम्हारा किरदार
समुद्र-सा होगा
तो मैं सदैव बनना चाहूंगी
एक नदी.....
जिसका उद्गम स्थल
चाहे जो भी हो
परंतु वह अंततः
तुम में ही
विलीन हो जाएगी.....
और इस प्रकार निस्संदेह
मैं प्रेम में तुम्हारे अंदर
स्वयं को देखने की
कल्पना को
जी लूंगी "यथार्थ" में....!-
दुनिया की चमक- दमक में
प्राय: वास्तविकता कहीं छिप सी जाती है
परन्तु "यथार्थ "
छिप सकता है लेकिन बदल नहीं सकता-
स्वार्थ से परे यथार्थ
और उस यथार्थ पर
तेरी ख़ामोशी का
ये लिबास ।-
"प्रेम से ही छला जा सकता है किसी को भी,
वरना शख्सिय़त कमज़ोर किसी कि नही होती!-