खुश्की कलम में नहीं एहसासों में है
गर खामोशी से बयां हो जाये तो खामोशी ही मुस्तकबिल है...-
"मुस्तक़बिल" मेरा इस कदर बुलंद हो अल्लाह के करम से
कि कभी लब पर मेरे शुबा-ओ-शिकायती लहज़ा न आने पाए-
शफ़क़ हो ,चाँदनी हो ,कहकशाँ या फ़ूल प्यारे भी
नहीं तुम सा कहीं जादू ,सभी देखे नज़ारे भी
तुम्हारी मुस्कुराहट में इज़ाफ़े हम अगर कर दें
लगेगा हो गए पूरे सभी अरमाँ हमारे भी
वो लम्हा थम गया मुझ में, निगाहें जब मिलाईं थीं
कभी इक पल हुआ शामिल,ख्यालों में तुम्हारे भी?
तुम्हें छूने की ख़्वाहिश ही फ़क़त अब तक अधूरी है
बढ़ा कर हाथ यूँ तो छू लिए हैं चाँद तारे भी
जुड़ी तुमसे हैं जो यादें ,रखीं दिल के समंदर में
बहा के ले न जाएँ वक़्त के ये तेज़ धारे भी
शिक़ायत ये नहीं हम में न मुस्तक़बिल दिखा ऐ दीप
कुसूर इस मुफ़लिसी का ही रहा जो इश्क़ हारे भी-
मुस्तक़बिल लिखना जो मेरा अगले जन्म
तो ज़रा सुक़ून से लिखना
सुक़ून मुझे इस जन्म
ज़रा भी सुक़ून से मिल ना पाया
- साकेत गर्ग 'सागा'-
पर्दा-ए-इल्म मुस्तक़बिल के असरारसे, तकदीर-ए-उजरतको कौन वाक़िफ़ है।
फ़र्दा से ज्यादा इमरोज़ही अपनी हिकमतसे करम-ए-सम्त तय करनेकी हाजत है।-
मुस्तकबिल के चक्कर में हम जीना भूल गए
सोचता हूं अब काश कोई बीते लम्हों को लौटा दे....-
कि शराब प्रतिबंधित है मेरे शहर में
तू ना आया तो मेरी मौत मुस्तक़बिल है
ज़रा रोज़ एक बार नज़रों से ज़ाम छलका दिया करो-
उन सभी लकीरों को मिटा दिया मैंने,
जहाँ मेरा मुस्तक़बिल अच्छा लिखा था.....-
हर एक को रोना ही पड़ा है मोह्ब्बत में,
मोह्ब्बत कहाँ किसी का मुस्तकबिल बना है...-