इस दफा रब्त-ए-मोहब्बत सिर्फ ख़ुद से रक्खूंगी
कलम-ओ-किर्तास को फलसफ़ा-ए-ज़िंदगी से चक्खूंगी-
न सूफ़ी, न दरवेश, न खुद को मलंग कहते हैं
जहाँ चाहे जैसा चाहे रक्खे, ख़ुदा के रंग में रहते हैं-
क्यूँ मिरी ज़िंदगी में तिरे होने की तलब रक्खूं
बेहतर हो के मैं खुद ही तिरी तलब हो जाऊं-
इश्क़ के हिज्जे, लैला-मजनूं के क़िस्से
दो ही सबक मुनाफ़िक, इश्क़ज़ादों के लिए-
आपसे ही हर ख़ुशी आपसे ही शादमानी
रगों में बहने लगा है आपका इश्क़ ज़ाफरानी-
तुम अपनी मोहब्बत का गुल मेरी ज़िंदगी में खिलाए रखना
मैं तुम्हारे इश्क़ की खुशबु से खुद को महकाया करूँगी
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ऐ ख़ुदा! दुआ इतनी, के हर बशर के अख़्तियार में हो, वो दिवाली
जो मज़हबी दीवारों से उठ कर, फ़कत इंसानियत को रौशन करे-
किसी धर्म-ओ-मज़हब के मोमिन न रहे हम
हमने तो बस इंसानियत को अपना ईमाँ माना-
यूँ तो फ़लक तक पहुँचना मुनासिब न हो चाहे
अपने महबूब उर्फ माहताब के बे'हद करीब है हम-
ख़ुदा जाने दिल ने ख़्वाहिश न की कभी महल-ओ-हिसार की
दिल तो यही चाहे के बस ता-उम्र रहे सोहबत में यार की-