ऊँचे पहाड़ों को देखकर अक्सर सोचती हूँ
सदियों से जड़वत, सामन्जस बनाये एक इन्च भी ना हिले
दृढता, ठहराव और निश्चलता जो इनमें है, मुझमें क्यूँ नहीं।
दूर दूर तक सफ़ेद बर्फ की मखमली चादर में लिपटे
कहीं चीड, चिनार और देवदार की हरी चुनरी ओढे
विविधता, सादगी और सुन्दरता जो इनमें है, मुझमें क्यूँ नहीं।
उपर और उपर, बस उपर उठते जाना
कभी हवा कभी पानी बनकर और कभी ढाल बनकर
सेवा करने की चाह, भाव और समर्पण जो इनमें है, मुझमें क्यूँ नहीं।
मानवीय कृत्यों को उन्ही के अंदाज में बदला लेने
बडे बडे पत्थरों को लुडका कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की
उदन्डता, आक्रोश और प्रतिशोध जो इनमें है, मुझमें क्यूँ नहीं।।
-