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( Period , माहवारी )
इस दर्द का अंदाज़ा कुछ लोग को है ....
बाकियों को आज महसूस कराना चाहता हूं!
दर्द से भी दर्दनाक ये दर्द है....
इसका एहसास मै हर मर्दों को कराना चाहता हूं!
ज़िंदे पे अगर आपकी कोई खाल खींचे....
तो किस भावना से गुजरेंगे मै ये आपसे पूछना चाहता हूं!
ऐसी ही भावनाओं से हर माह गुजरती है नारी....
मै इन्हीं के साथ एक हफ़्ते का दर्द उठाना चाहता हूं!
नारी ने इसी दर्द से दुनिया का आविष्कार किया है....
मै ये बात फिर से सबको याद दिलाना चाहता हूं!
इसी दर्द को हर माह , नो महीना सहकर एक मर्द को जन्म दिया है....
मै ये बात अपमानित करने वाले के मगज़ मै घुसाना चाहता हूं!-
हर प्रश्न का उत्तर..
(यह मन में सोच कर )
प्रश्न..
पुछ बैठी वो आज मां से
मां, मां दुर्गा मां भी स्त्री है,
फिर क्यों...?? हम लड़कियों के
माहवारी से इतना मुंह
बनाते हैं,लोग ....???
(कृपया अनुशीर्षक पढ़ें..👇👇)-
"अशुद्ध मैं नही, तू है!"
बिस्तर पर जो मेरे खून के दाग है,
तेरे आने वाले वंश का सबूत है,
अशुद्ध मैं नही, तू है!
जो मेरी नाक पर इस समय गुस्सा है,
मेरे महीने के वो दिन नही, तेरे बदतमीज़ी कारण है,
अशुद्ध मैं नही, तू है!
जो आज मंदिर नही जाती मैं, वजह तू है,
जो बचपन में 5 दिन मुझे कैद किया है,
अशुद्ध मैं नही, तू है!
यौवन में जो मैंने कदम रखा,
बधाई के साथ जो बंदिशों का मुझपर पुल बाँधा,
अशुद्ध मैं नही, तू है!
किचन में घुसने से तूने मुझे रोका,
फिर खाना न मिलने पर मुझे ही कोसा,
अशुद्ध मैं नही, तू है!
हाँ मैं लड़की हूँ, और मुझे माहवारी होती है,
ये मेरे माँ बनने का कदम है, मुझे नीचा दिखाने वाले,
अशुद्ध मैं नही, तू है!-
अगर स्त्री इतनी ही अपवित्र है,
कि मासिक-धर्म के 7 दिनों के
दौरान मंदिर नहीं जा सकतीं ...
तो उसी स्त्री की कोख में 9 महीनें
पलकर जन्म लेने वाला
पुरुष पवित्र हो गया... कैसे .??
(कृपया अनुशीर्षक पढ़ें..👇👇)-
माहवारी..
दोहरी मानसिकता दोहरी कार्यप्रणाली सदैव दिखाई जाती है
हम अछूत हो जाते हैं श्रद्धा से अंबुबाची प्रथा निभाई जाती है-
माहवारी..
नैसर्गिक श्रृंगार से सुशोभित नई वहू है,,, घर आई
महावर लगे पग लाल जोड़े में लाल पड़ी है समाई
अम्मा बोलीं बहुरिया आल्ता यूँ न लगाया कर कैहें
उन दिनों में पाँव रंग लिया कर, बबुआ समझ जैहें
कि तू अछूत,,, हैहें
अउर तोहे न छुइहें-
माहवारी..
छौपदी प्रथा की मारी रजस्वला नारी फिर हारी
कैसे लिखूँ निभानी चाहिए परंपरा हमारी सारी-
"माहवारी"
सुन के ही अजीब लगता है ना?
पैतृक सभ्यता जो है, लगे भी क्यों ना
सरे आम नहीं कहते, शायद किसी की नीयत बदल जाये
इतने कमज़ोर होते हैं ये लोग कि सुनते ही फ़िसल जायें
संयम, लज़्ज़ा, हया, मर्यादा तो केवल नारी के श्रृंगार हैं
पुरुषों को खुद पर काबू रखना भी कहाँ स्वीकार्य है
बिटिया की माहवारी का पता पिता को न होने पाये
खयाल रखना कहीं सुनते ही कान से खून न निकल आये
संभल कर रहना, कहीं दाग न लग जाये,
किसीकी नज़र पड़ने पर बड़ी बदनामी होगी
भाई से दूर रहना, कहीं उसे ख़बर न लग जाये
उसने पूछ दिया तो तू बड़ी बेशर्म, हरामी होगी
दर्द बर्दाश्त कर लो ज़ाहिर न करना
कराहकर घर में क्लेश न करना
अछूत होती है रजस्वला नारी
कथा नहीं, ये प्रथा है हमारी
माहवारी को कह दो बीमारी
ताकि बनी रहे चुप्पी तुम्हारी
अरे क्यों बांधते हो हमें ऐसी बेड़ियों में?
क्या तनिक भी अंकुश नहीं तुम भेड़ियों में?
ये कैसा समाज, कैसी प्रथा, कैसी रीत है बनाई
पृथक कर हमें, हिस्से में दी सिर्फ़ पर्दे, दर्द और तन्हाई-
प्रश्न..
पूछ बैठी वो मां से
दुर्गा मां भी तो स्त्री है...
फिर मेरे रक्तस्राव से
दादी क्यों मुंह सिकोड़ती है?
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