बचपन से ही परिवार का बोझ
अपने नाज़ुक कंधों पर उठाते हैं,
हाॅं, ये मासूम कच्ची उम्र में पिता बन
अपना घर-बार चलाते हैं ।।
ख्बावों को जिम्मेदारी के बक्से में बंदकर
बेबसी का ताला लगाते हैं ,
और मासूम हसरतों का गला घोंट
दो जून की रोटी जुटाते हैं।।
फटे कपड़ों में बाप की शराब की गंध लिए
भूखे पेट ही काम पर आ जाते हैं,
पर चीथड़ों से झांकते ज़ख्म के निशान
अधूरे ख्बावों की दास्तान कह जाते हैं।।
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.......... निशि..🍁🍁
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