सबसे फसाना हुआ करता था।
मैं भी दीवाना हुआ करता था।।
बात करता था महजबीनों से।
गवाह ज़माना हुआ करता था।।
इश्क करता था मै भी किसी से।
"मिजाज़" आशिकाना हुआ करता था।।-
अब नहीं डराता मुझे ये सियाह-ताब अंधेरा है
मेरा हाफ़िज़ मह-जबीं माह-रू सा यार मेरा है
- साकेत गर्ग 'सागा'-
ऐ प्रिय ज़िंदगी ...
तुम तैयार हो तो मैं आखिरी
सांस तुझ में लगा दूं।।
बस तुम बेवफ़ाई न करना तो
मैं इस धड़कन को सजा दूं।।
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मह-जबीं ओ जान-ए-जॉं ये तो बता सच है क्या
आश्रा-ए-सोज-ए-मोहब्बत के सिवा तेरे मेरे दरमियाँ और है क्या-
उसकी आमद से जिंदगी मह-जबीं हो गयी है
मोहब्बत से भरी मेरी दिल की ज़मीं हो गयी है
शुक्र है रब का उसने इतना सब अता किया है
ख़ुशी में इज़ाफ़ा और दर्द में कमी हो गयी है।-
तुम जो भी हो, बड़ी हसीं हो, मह-ज़बीं हो या नाज़नीं हो,
खता तो हो गई हमसे, तुम मिरी, रूह के लिए लाज़मी हो.-
एक दफ़ा ,राह में टकराया था,
वो, हूबहू माह-ज़बी था.
निग़ाहें थी, तीर तरकश ,
जब उसने, तिरछी, निग़ाहों से घूरा था .
थी, लबो पर, यूँ क़ातिल हँसी,
उसकी, इन अदाओं ने,
दिल, मेरा यूँ, लूटा था.
है आज भी, ये ,रूह घायल,
उसके, बिछड़ने का ग़म है ,
है दर्द कहीं ज़्यादा, तो कहीं कम है.
है ढूंढता, ये दिल आज भी, उस नाज़नीं को,
जिसने सरे राह, दिल मेरा लूटा था .
क्या ख़बर! मिल जाये फ़िर सफ़र में,
रोज, आता जाता हुँ, आज भी ,उस डगर में.
है दिल को ,ऐतबार इतना,
वो, मेरा हमनशीं है,
वो ख़्वाब नही, हक़ीक़त है ,
इतना मुझे यकीं है.
-डॉ मंजू जुनेजा
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कभी ऐसा भी होता है
कोई हमारे लिए बहुत अजनबी होते हैं
और हम उनके लिए बहुत महजबीं होते हैं-
वो मेरी महजबीं यूं पास पास से गुजर गई!
मै बेकरारी में हजारों एहसासों से भर गया!-