बेजान राहों की तंग गलियों में किसी मोड़ पर यूं चलते चलते थक हार कर रुक जाने को मन करता है। आजादी के इस बड़े गगन से लौटकर फ़िर अपने घोसले में, जाने को मन करता है।
जिसके भीतर तुम महीनों रहे, उस - सी की हीं आबरू पर , क्यूं वार करते हो, कभी सोंचा नहीं तुमने, ऐसा करके उसकी तरबियत शर्मसार करते हो, जो ये यूं जान लेती वो, तुम्हारी जान लेती वो, उसकी सारी सहनशीलता का, ये पलटवार करते हो।।
भोर हो या दुपहरी हो, लहरों से बातें करती थी, यारी उसकी कुछ गहरी थी, इक अनजानी-सी लहर उठी, उस चंचल मन के तीरे से, वो चली तो ये ना जान सकी, कोई साथ हो लिया धीरे से।।
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