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चौराहे तिरंगे बेचती
अम्मा की लाठी हूँ
मेरा 'कलाम' सा मज़हब
मैं हिन्दुस्तान की माटी हूँ
(Read complete poetry in caption)-
कोई मक्का मदीने गया और
कोई हरिद्वार जाके घूम लिया
मैं भी किससे कम था साहब घर गया
और माँ के दोनों कदमो को चूम लिया-
बचपन की मस्ती
बचपन की उधम-धाड़
वो कागज़ की कश्ती
बारिशों की फ़ुहार
वो गन्ने के रस की धार
घंटी बजा के भागना बार-बार
वो साइकिल....वो झूले
वो बगीचों की बहार
छत पर भाग कर चढ़ना
टीवी एन्टीना ऐंठना बारम्बार
स्कूल था मक्का-मदीना
स्कूल ही था कारागार
नकली ही सही पर खूब दौड़ती थी
अपनी भी बड़ी कार
साथ बैठकर खाता था
जब सारा परिवार
रूठता न था कोई
सभी थे मेरे संबंधी मेरे प्यारे यार
जाने कहाँ रह गया...वो बचपन
वो बचपन का भोला प्यार
- साकेत गर्ग-
किसी ने सच कहा है कि
जिस दिन आतंकवादी मक्का ओर मदीना पर हमला कर देगे
उस दिन मै समझ लूगा कि आतंकवाद का कोई धर्म नही होता-
मेरे दोस्त पर सब कुछ कुर्बान हैं
दोस्ती हमारी ना बटेगी मझहबों के जैसे कभी....
इस दोस्ती के लिए तो दिल में तिरंगें सा अभिमान हैं...-
दिल मेरा काशी है,
उसमे जो तू बसी है,
वो जगह मदीना हो जाता है
जिन राहों से तू गुज़र जाता है।-
खानी थी पीरों को, खुद के कटोरों में खीर
कटोरे आ गए मक्का से, दंग रह गए पीर-
मेरे दोस्त पर सबकुछ कुर्बान है,
उसकी दोस्ती ही मेरे लिए मजहब है,
और उसकी दोस्ती से ही मेरा ईमान है!!-