मेरे लिए लिखना...
मानो मेरे भीतर बैठे
लड्डू गोपाल को भोग लगाना
जिस दिन ना लिखूं लगता है
मेरे लड्डू गोपाल अतृप्त हैं !!!
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योग
त्यज दिया तो लग जाए भोग का रोग...
अपना लिया तो आत्मा-परमात्मा का संजोग...-
प्रेम देने के लिए…
किसी ऐसे को चुनना कि
अगर उसने न भी स्वीकारा तो
उस प्रेम को,
ईश्वर को लगाए भोग की भांति
औरों में बांटा जा सके।-
भोग के अतिरिक्त
क्या देखा है कभी
एक 'स्त्री' को
किसी और नज़र से..
नही ना...! देखते भी कैसे..?
आँखो में जो कामुकता की पट्टी बँधी है
मंदिर जो देवी ,लक्ष्मी है
बाजार में बस वो खिलौना ही
बिकना होता है रोज उसे
कागज़ के चंद उसूलों से
देवी का दर्जा मंदिर बस
बिस्तर जो सजी तो वेश्या हुई
मर्जी समझो या लाचारी
बिकती तो एक है 'औरत' ही
अन्धी होकर मानवता भी
कहती, है आज 'दिवस' कोई
काटेंगे केक मनाएंगे
फिर सुबह 'भूल' सब जाएंगे-
मेरे लिए लिखना.......
मानों अंतर्मन के पट खोल,
हृदय में सहेजी स्मृतियों को
मूर्तरूप देना..!
जिस दिन ना लिखूँ लगता है,
हृदय की अवचेतना जड़ हो गई है।
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भगवान को लगाया गया भोग किसी भूखे को प्राप्त होता है ऐसा लोग कहते हैं, पर किसी भूखे को खिलाया गया भोग भगवान को प्राप्त होता है, ऐसा मेरा मानना है।
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प्रेम का रोग लगा हो जिसको
भाये न प्रेम का भोग
चाहते हैं प्रेमी कहलाना
समझे न प्रेम को लोग
किससे प्रेम होता है किसको
ये सब है संयोग
चाहते हैं प्रेमी कहलाना
समझे न प्रेम को लोग-
बचपना बहुत अच्छा लगता है बड़प्पन नहीं..
सादा खाना अच्छा लगता है भोग छप्पन नहीं..
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