व्यथित मन से कर रही हूं पुकार,
ये कैसा प्रलय झेल रहा है बिहार,
पहले सुखाड़ तत्पश्चात विकराल बाढ़,
मासूमों को छीन गया पहले ही चमकी बुखार,
दंश लू का चला ऐसा,जाने कितनी चली गयी,
रोई बिलखी माँओ की आँचल बस भींग के रह गयी,
कोई न सुना दुखड़ा, उनकी गोद सूनी हो गयी,
इलाज़ के अभाव में बच्चों को बेमौत मौत मिल गयी,
जाने क्या गलती हुई,क्यों कर रहा प्रकृति खिलवाड़,
और नेत्र मूंदे सत्ता पर मौन बैठी है यहां की सरकार,
जनता की कोई सुध नहीं है करती नहीं कोई प्रतिकार,
बच्चे-बूढ़े तड़प रहे हैं,मिल न रहा है उनको आहार,
सुशासन बाबू आत्ममुग्ध हो गए,अब आस ही न किया जाएं,
सोये रहने दे उन्हें,उनके तंद्रा को न भंग न किया जाएं,
बस प्रार्थना अब तुमसे करती हूं भगवन,दुःख मासूमों का सुना जाएँ,
बहुत हो गया इम्तेहान अब कुछ रहम भी तो किया जाएं!🙏-
एक दूजे पर सारे दोष लगाकर,
अपनी कमियाँ छुपाना जानते हैं...
ये सियासतदां हैं जनाब
ये कहाँ मानते हैं...
किसी का घर उजड़ जाए,
या प्रलय भी कोई आ जाए...
ये फिराक में अपने रहते हैं बस,
ये चिता पे हाथ सेंकना जानते हैं...
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कुछ भी कहो
कुदरत के आगे तो भगवान की सरकार भी झुक गयी
इन्सान की तो लाजमी थी
नहीं तो ऎसा कोन सा मुखिया होगा जो अपने घर को डूबते देखेगा
भगवान नहीं इन्सान है बो कुदरत के आगे छोटा सा सामान है बो-
"तुम बनारसी इश्क की दीवाने हो _ मैं बिहार की गंगा " , जिसे बाढ़ से भी इश्क करना पड़ता है. 🌻
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बिहार में आत है बाढ़ बा,
कमाए के शहर जात लाचार बा,
उ शहर में दिहाड़ी मजदूर बा,
मजदूर कहलावे बिहारी बा,
नून रोटी भात खाइल बा,
पैदल भूखा पेटवा चलत बा,
जान उके रोडवा पर जाइत बा,
पर वोटवा देले वक्त सब भूल बा..
एगो बिहार के लोगन का
ई कहानी बा !! - Aash Mehta-
वेस्ट इंडीज की हालत "बिहार जैसी है
हर गांव से भर भर के IAS/IPS निकलते है,
लेकिन गाँव की हालत कभी नहीं सुधरती।
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मेरे शहर में बस पानी पानी है
इसी हालात में बिहार की राजधानी है
मिट जाते हैं जो घर मिट्टी के रखते हैं
मेरी तो मिट्टी में मिलती पूरी जवानी है
खबर यह है कि कुछ रोज और बारिश होगी
ना कोई इन्तज़ाम है ना बताने लायक कोई कहानी है
मेरे घर में खाने को कुछ भी नहीं
यहाँ मौत आसान है और मुश्किल जिंदगानी है
सियासत चुप है और कह भी क्या सकती है
उन्हे तो एक दूजे की गलती बतानी है
मीडिया बयाँ तो कर सकती है लेकिन गुंगी बनी फिरती
उन्हे तो सिर्फ अपने चैनल की TRP बढ़ानी है-
छोड़ अपना घर-बार निकले थे जो बेघर हो कर
अपनों को साथ लिए खा रहे है ठोकरे दर-ब-दर...
कुछ साथ हुए, कुछ बिछड़ गये
अपनों के आगे अपने और उन संग सारे सपने बह गए...
रोती बिलखती चीखें सुनायी देती हर तरफ
आँखें भी नम हो जाती है,देखती हूँ जिस तरफ...
सब बह गया,चली गयी मेहनत की सारी कमाई,
खाने के दानों के लिए अब हो रही लड़ाई...
अब मिलते है मलबे,ढूंढते जो आशियानें
बस इन्हें निहारती बेबस लाचार आँखें...
लोग लौटने लगे अपने-अपने घरों को,
थमीं जिंदगी फिर से चलाने को ....-
तुफान आते ही सारे पंछी घर जाते हैं
कुछ ऐसे बेघर होते कि बिखर जाते हैं
अच्छे लोग हैं अब भी इस जमाने में बहुत
बस बुराई यह है कि मर जाते हैं
अंधेरा होते ही सितारे चमक उठते हैं
सुबह होते ही सब किधर जाते हैं
गरीब आंखों में मोती चमक रहे हैं
गरीब बस्ती में पानी ठहर जाते हैं
तैर रहे हैं शहर , गांव भी डूबने को है
ऐ सियासतदां , हमें भी ले चलें आप जिधर जाते हैं-