समेट रही हूँ खुदको
खिड़की के पीछे बंद दरवाजे मे
शून्यता बौखलाए शोर मचा रही है
आवाज निरंतर कान मे गूँज रही है
ख्वाब पैर से कुचले जा रहे हैं
इंसान इतना बेबस की चिल्ला नहीं सकता
मौत इतनी गहरी जो दिखला नहीं सकता
और क्या है जो होंठ बोल सकता है
ये जिंदगी है जो सब तौल सकता है
मैं खिली फूलों सी बाग मे नई हूँ
मुरझाए पेड़ तो माली से परेशान है
ये जो हमें लगता है एक जहां और भी है
खाली भटके सफर के बाद
वो जहां आबाद ना हो तो क्या होगा
इंसान अभी मर जाएगा, या बस जी जाएगा-
The sound of crickets
The twinkling of firefly
The chasing of dream
The colic of children
The gusting of wind
The theme of puppet
The story of grand Maa
The occultation of moon
I want to chase myself for myself
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#लोकल बस
जब भी काम खत्म कर, शाम को लोकल बस पकड़ने निकलती हूँ, एक ही सवाल रहता है.
"छूट ना जाए कहीं"
आखिर इतना डर क्यू, क्या भाग रहा है, कुछ ना कुछ तो छूटेगा....!
पिछली शाम लौटते वक्त, बस पर चढ़ कर सीट मिल जाना, किस्मत है.
बैग को लटकाकर आराम से ध्यानमग्न थी, बाहर काफी शोर था, जो ध्यान को भटकाए जा रहा था.
कुछ देर बाद, बगल वाली सीट पर एक लड़का बैठा
कन्डक्टर ने पुछा _ कहाँ जाना है
कहता है गांधी मैदान के पहले
कन्डक्टर - सरकारी बस है ये, पच्चीस लगेगा
बिना नोक झोंक किए पचास का नोट थमा देता है
थोड़ा हकलाए कहता है _"भईया भाग थोड़े ना रहे थे "
मैं ये सब देखे, फिर खिड़की की ओर देखने लगी, कौन बेहीश मसले मे पड़े.
थोड़े देर पूछता है _ आप टीचर है
मैंने सर को हिलाए कहा, आपको कैसे पता
कहा, पर्सनैलिटी है आपकी
मैं पहले मुस्कुराई फिर कही _ अच्छा
क्या पढ़ाते हैं आप _ सोशल साइंस
मेरे क्लास मे आपके जैसे टीचर ही नहीं थे, नहीं तो हम भी पढ़ते
शब्द की कमी थी मेरे पास, अब समझ नहीं आता तारीफ का क्या करे..
फिर कहता, एक बात और कहे
मैने कहा _ जी
आप #aspirants की dhairya जैसी है, ditto
तब तक बस पहुच चुकी थी, मेरे गंतव्य पर _ उसने कहा BYE Dhairya....
मैं मुस्कुराई और चल पड़ी.... /
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शब्दों के अर्थ झूठे हैं
कुछ नहीं बनता जायज का
रिश्ते नाते बाकायदे झूठे हैं
तुम ख्वाब देखो रसमन के
हाथों के डोर कच्चे हैं
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What is life..
Is it a race, then who is the driver
Is it a pace, then who is the instructor-
तू मुझसे मिलने आती है _ बरसात साथ ले आती है
ढह पड़ते हैं छत मेरे _ ऐसी मुलाकात क्यू लाती है-
सुपरमार्केट से निकलते वक़्त
हाथ मे झोली थामे,
जोड़ घटाव कर रही थी
हिसाब का, समान का.
कौन सा कोष से,
कितना धन निकासी हुआ.
सामने होर्डिंग पर बड़े से
अक्षर पर लिखा था,
नामी डॉक्टर के नाम पता
एक बूढे बाबा अपने पोता
को हाथ मे थामे, देखे जा रहे थे
उसका पोता, दादा को देखकर
घूरे जा रहा था
मैं देख रही थी,
कब काम पड़ जाए
जिम्मेदारी भी तो है
एक होर्डिंग और इतनी सारी आँखे
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