बूँद-बिंदी-बिंदु
रक्त के 'बूँद' से शुरु हुई कहानी...
पसीने की 'बूँद' बन रहते हुए.,
आँसू की 'बूँद' बन बहते हुए.,
कभी किसी रोज 'बिंदी' मे परिणीत हो गयी,
कभी माथें की 'बिंदी', कभी काजल की 'बिंदी'
कभी तीज की 'बिंदी', कभी त्यौहार की 'बिंदी'
कभी पिता के सम्मान की 'बिंदी'
कभी पति के नाम की 'बिंदी'
कभी किसी रोज 'बिंदु' मे परिणीत हो गयी..
शून्य.... से भी छोटी सी 'बिंदु',
जिसे यदि 'मात्रा' में ना भी लगाया,
तब भी 'शब्द का अर्थ' और
'मर्म' समझ आ ही जाता है,
अपना अस्तित्व ढूँढती 'बिंदु' ,
गलती से कभी-कभी,
किसी और ही शब्द मे लग जाती है,
पर आवश्यकता उसकी वहाँ भी नहीं...!
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