"सुनो,
बहोत अच्छा लगता था ना तुम्हे
मेरे कानों से खेलना,
आज बालियां पहन ली हैं मैं ने।"
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तुम्हारे कान
खूबसूरत नहीं साहसी सुनने के लिए
बालियों का बोझ उठाते हैं!-
दूर रहकर भी अपनी धरोहर दिल में ,ज़िंदा रखती हूँ ,
मैं कुछ बाजरे की बालियां शहर में उगा कर रखती हूँ !-
आँखे नहीं भीगती..
धडकने नहीं तेज़ होती..
दिन भर पहन लेती हूँ..
तुम्हारी लायी सिल्वर बालियां..
ज़ब बहुत याद आते हो तुम..
आईने में देखती हूँ कभी..
उंगलियों से छूती हूँ कभी..
दिन भर उन्हें अपने कान से कपोल तक..
छूते,, महसूस करती रहती हूँ..
ज़ब बहुत याद आते हो तुम..
फिर रात को उतार कर कानो से..
छुपा लेती हूँ सिरहाने तकिये से..
रात भर सपने तुम्हारे ढूंढती हूँ..
ज़ब बहुत याद आते हो तुम "!-
कुछ यूं मैं रोज़ अपनी ग़ज़लें सवाँर लेता हूं,
मैं हर शब आसमांँ से तेरे लिए बालियां, झुमके उतार लेता हूं।-
चूड़ी, गले का हार कानों की बालियाँ
क्या सारे गहने ही तुम उतार डालोगी
नाराज़ होके तोहफ़े लौटा रही हो क्युँ
इस तरह तो मुझको तुम मार डालोगी-
धान
मैंने धान की बालियों
की घनिष्ठता में...
एकता और सौंदर्य
रूपी कमनीय....
देखा....
और संगठन की
ताकत और चारू
को पहचान ।-
तेरी हर अदा से नया करार होजाता है,
तेरी हर अदा पर मुझे प्यार होजाता है,
ये जो जुल्फें कशमकश में डाल देती हैं,
चाँद पर बादल का धोखा होजाता है,
माथे पर बिंदिया की चमक ऐसी है कि,
चाँदनी में सितारे का भरम होजाता है,
ये आँखें किसी रोज मार ना डालें कसम से,
नज़र भर में मयखाने का नशा होजाता है,
गेशुओं में झांकती तेरी बालियों की चमक,
घटा में बिजली से ज्यों उजाला होजाता है,
होंठों के प्यालों की तो आरज़ू है दिल में,
जाम-ए-मदहोशी का हाल बतलाता है,
कितनी तारीफ़ करूं इस हँसी चेहरे की,
दिल में इक नई गजल रोज जगा जाता है|-
दस्तकें ,आहटें , करवटें सब कहा करती हैं
उँगलियाँ , चूड़ी ,बालियां सब सुना करती हैं ।
मैं मिट्टी होकर महक उठा
जो बारिश की बूंदों जैसी वो मुझपर पड़ा करती हैं ।
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