गई जब रामी धोबन एक दिन, दरिया पे नहाने को
वहां बैठा था चंडीदास, अफ़साना सुनाने को
कहा उसने छोड़ दे रामी, सारे ज़माने को
बसाना है उल्फ़त का घर, आहिस्ता आहिस्ता-
होता बालक निर्दोष, निश्चिन्त, सबकुछ सरल समझता हूँ!
कभी जिद्दी, कभी अड़ियल टट्टू, कभी आँख का तारा बनता हूँ!
होता बेटा अपने माँ बाप का उत्तरजीवी सूचक से,
कभी राम, कभी श्रवण, कभी परसुराम सा बन जाता हूँ!
होता प्रेमी किसी प्रेयसी का गढ़ता प्रेम की परिभाषा,
कभी कृष्ण तो कभी शिव तो कभी कामदेव मैं बन जाता हूँ!
होता पति तो बन के अर्धनारीश्वर परिवार पोषक,
कभी मोम, कभी कठोर, कभी मासूमियत से निर्वाह करता हूँ!
होता बाप तो फस जाता दो पीढ़ियों के संतुलन में,
कभी चुप, कभी समझाइश, कभी आंख मूंद के चलता हूँ!
होता पितामह तो बन जाता हूँ छांव बरगद की मैं,
कभी लाचार, कभी अधिकार, कभी नसीहत से बातें करता हूँ!
होता पुरुष जो इस धरा पर, के महत्व पर गौर नहीं,
खग की भाषा खग ही जाने, सब पुरुषों को समर्पित करता हूँ!
_राज सोनी-
परे होकर...
सांसारिक रीतिओं से
जातियों से,धर्मों से,
विधियों, भाषाओं औ'
सीमाओं से...
निकट हो जाते हैं प्रेमी ईश्वर के।-
कल सहसा यह सन्देश मिला, सूने-से युग के बाद मुझे
कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर, तुम कर लेती हो याद मुझे।
जिस विधि ने था संयोग रचा, उसने ही रचा वियोग प्रिये
मुझको रोने का रोग मिला, तुमको हँसने का भोग प्रिये।
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मैंने देखा है
'प्रेम' में
'निवाला' तोड़ते हुवे
'प्रेमी' को
'प्रेमिका' के लिए
कैसा होता अगर
'प्रस्तुति' का ये भाव
'प्रस्तुत' होता
'उत्पत्ति' के
'माध्यम' को
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एक चुम्बन माथे पे
और प्रेमिका के बाहों से जकड़ा हुआ शरीर
प्रेमी को बचा लेता है आने वाले हर दुःखो से !!
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सुनो ,
स्त्रियों को लेकर भी पुरुषों का प्रेम दो तरह का होता है । एक वो पुरुष होते हैं जिनका प्यार स्त्री के कपड़े से छलकते हुए उभारो तक कि सीमित रहता है। उनकी नजरें वही फिसलती है और टटोलती रहती हैं उसके जिस्म को अपनी निगाहों से ।
फिर होते हैं दूसरे तरह के पुरुष जिनकी निगाहें स्त्री के उभारों पर नहीं फिसलती बल्कि उलझ जाती है स्त्री की जुल्फों से, अटक जाती है उसके दुपट्टे के धूंधरूओं से और ठहर जाती है उसकी मुस्कान पर ।सुनो, मुझे सिर्फ दूसरे तरह के पुरुष पसंद हैं तुम्हें तो पता है ना तुम किस तरह के पुरुष हो।-
हाँ, स्मृतियों में व्याप्त है
वो प्रेम की पावन परिभाषा
जिसे राधा ने कृष्ण के साथ लिखा
जिसे ढ़ाई अक्षर में लिखना
अज्ञानता है संसार की
तो मैं नहीं कह सकता मुझे प्रेम है
मैं नहीं कह सकता कि मैं प्रेमी हूँ
परन्तु जो कुछ भी है ह्रदय में
वो असीम है, पवित्र है
मौन सही परन्तु सत्य है
दरिया तो नहीं प्रेम की
प्रेम नहीं परन्तु एक बूंद है
【पूर्ण अनुशीर्षक में】-
कि जिस गांव से मैं गुजर रही हूं,
मुझे इश्क़ की बहुत महक आ रही है।
शायद किसी शजर की छांव में बैठी कोई प्रेमिका,
अपने प्रेमी से इशारों में ही बातें किए जा रही है।-