विरह की अग्नि में जल तपस्या मैं कर रही
तो अनवरत प्रतिक्षा में तुम भी तो होंगे
पा कर तुम्हें सप्तपदी वचनों से, फिर खोया
अधूरी हूँ यहाँ, तो पूर्ण तो तुम भी तो नहीं होंगे
कुम्हलायी ,निस्तेज, निर्जीव सी ढोती हूँ काया
फूल सा तन, सुरभि-सा मन तुम्हारा भी तो ना होगा
चेहरे की फीकी हँसी से ढकती हूँ उदासी की लकीरें
हँसी उजली वो नीली चमक तेरे चेहरे पर भी ना होगी
सुवास रहित निर्जन पथ पर एकाकी सफर पर हूँ मैं
महकती ,चमकती चाँदनी यामिनी में तुम भी तो ना होगे
आँखोंं से बहते हैं अविरल अश्रुजल की धारायें
तेरी आँखों से खुशियो के अक्षुनीर तो ना झरते होगे
अनजानी नियति से बँधी हैं जो सारी दिशाएँ हमारी
ये सत्य है,ना मैने चाहा था इसे ना ही तुम चाहते होगे
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